टेलीवीजन जो दिखाता है वह अर्धसत्य है। उसके कर्मी उतने कुशल नहीं हैं, जितने अन्य देशों (विशेषकर) अमेरिका के हैं। वे चिल्लाचिल्ला कर टिल्ल सी बात को “बड़ी खबर, बड़ी खबर” के नाम से दिन भर बांटते रहते हैं। सरकारी फीड पर जिंदा रहने वाले परजीवी हैं – अधिकांश। एक और नौटंकी – पैनल डिस्कशन की बिसात बिछा कर रोज करते हैं। वही घिसेपिटे चेहरे जो अपने घर के ड्राइंगरूम से उन्ही की तरह बिना शिष्टाचार के चबड़ चबड़ एक दूसरे पर बोलने वाले हैं, उन पैनल डिस्कशन के घटक होते हैं। देखना बंद कर दिया है मैंने।
निकोलस क्रिस्टॉफ का एक लेख है न्यूयार्क टाइम्स में। शीर्षक है – Life and Death in the ‘Hot Zone’। जरा देखिये और पढ़िये। उसमें एक डॉक्यूमेण्ट्री है। उसका स्तर देखिये। क्रिस्टॉफ कहते हैं कि रिपोर्टिन्ग वैसी ही कर रहे हैं वे लोग, जैसे युद्ध के संवाददाता करते हैं।
हमारे यहां कोरोना वायरस पर युद्ध स्तर की रिपोर्टिंग करने वाले संवाददाता विरले हैं। गिनेचुने। … यह मत मैने आजकल की रिपोर्टिंग देख कर नहीं बनाया। पहले भी ऐसा सोचता रहा हूं। हिन्दी ब्लॉगिंग के स्वर्ण युग में हिन्दी के कई पत्रकार हिन्दी ब्लॉग लिखा करते थे; उस समय उनके स्तर को बहुत बारीकी से ऑब्जर्व किया था मैने। और बहुत से घटिया थे। स्नॉब और स्तरहीन। प्यूट्रिड!
ग्रामीण जन जीवन की बहुत रिपोर्टिन्ग मीडिया में नहीं है। मैं सर्च करता हूं तो अन्दाज लगता है कि 20-30 करोड़ के आसपास लोग खेती-किसानी या उससे सम्बन्धित कार्य पर निर्भर हैं। और वह दिखता भी है। पर मीडिया रिपोर्ताज में वह गायब है।

खडंजे की खराब सड़क से गुजरते हुये एक गेंहू की कटाई करने वाले के पास रुकता हूं। सोशल डिस्टेंसिंग के नॉर्म के आधार पर उससे दूरी बनाये बनाये पूछता हूं – यह मास्क काहे पहन रखा है?
“कटाई से गर्दा उड़ता है। उससे बचने के लिये।”
अच्छा, मैने सोचा कोरोना वायरस का भय होगा इसलिये।
वह हंसा। शायद मेरा मास्क देख कर उसे अजीब लगता होगा – “कहां कोरोना? इस ओर कोई कोरोना नहीं है। इस तरफ़ तो गेंहू की कटाई की धूल है।”
गेंहू, अरहर, सरसों की कटाई-दंवाई में लगे हैं लोग। काम करने वालों की लगभग अस्सी परसेण्ट जमात इस काम में लगी है। वे अकेले हैं या समूह में भी। उन्हे कोरोनावायरस का भय नहीं है। जैसा इस कटाई करने वाले की हंसी से लगा, वह कोरोना को मेरे जैसे बैठेठाले की “रईस लग्जरी” मानता है।

कटाई करने वाले ही नहीं, ईंट भठ्ठा मजदूर, आनेवाले पेट्रोल पम्प की दीवार बनाते आधा दर्जन लोग, सूखते ताल में मछली पकड़ते ग्रामीण, ठेले वाले, किराना की दुकान में छोटे वाहन से हफ़्ते भर की खेप लाने वाले, कटाई के बाद खेत से बची हुई गेंहू की बालें बीन कर जीवन यापन करने वाले, धोबी, नाई .. ये सब काम पर लगे हैं। ग्रामीण जीवन और अर्थव्यवस्था (लगभग) सामान्य है।
कौन टीवी वाला यह दिखाता है। और यह देश की अर्थव्यवस्था का 25-30 प्रतिशत है?
मैं आपको कुछ चित्र – गांव में काम पर लगे लोगों के चित्र – स्लाइड शो में दे रहा हूं। बतौर संवाददाता नहीं; बतौर एक ब्लॉगर। … इस लिये कि सनद रहे कि पूरी सावधानी बरतते हुये भी मैने ब्लॉगर धर्म का पालन किया।
रात मोबाइल और टेबलेट पर कोरोना विषयक सामग्री पढ़ते-देखते बहुत समय गुजर गया। रात के दो बज गये। वह पढ़ कर कई विचार मन में आये। मैं आपको पठन सामग्री के अपने पॉकेट अकाउण्ट पर रखे आर्टिकल्स के लिंक देता हूं –
मेरे जैसे इण्ट्रोवर्ट को कोरोनायुग में परेशान होने की जरूरत नहीं। शायद मुझ जैसे लोग ज्यादा चैन से होंगे सोशल डिस्टेंसिंग या लॉकडाउन के जमाने में। लॉकडाउन बढ़ रहा है – यह लेकर मन में एक खुशी टाइप हो रही है। 😆
फ़ेस मास्क पर विद्वतजन और डाक्टर बिरादरी बहुत फ़्लिप-फ़्लॉप करती रही है। गांव देहात में साइकिल चलाते समय जब किसी अन्य व्यक्ति के सम्पर्क में नहीं आना; मॉस्क पहनने का कोई तार्किक औचित्य नहीं है। मैं पहन रहा हूं, इसलिये कि सरकारी आदेश हैं। अन्यथा मास्क के कारण मुंह पर पसीना होता है। खुजली सी होती है और चश्मे पर भाप जमा होती है जिसे बार बार रुक कर मुझे साफ करना होता है। यह आर्टीकल इस बारे में – आउटडोर व्यायाम के सन्दर्भ में मास्क की उपयोगिता के बारे में – उपयोगी है।
प्रधानमन्त्री जी सही कहते हैं – जान और जहान दोनों पर ध्यान देना है। स्पेन – जहां हालात बहुत भीषण हैं – वहां भी आंकड़ों पर ध्यान देते हुये लॉकडाउन पर शिकंजा नरम करने पर विचार कर रही है सरकार। यह लिंक भी देखें। अमेरिकी सरकार और न्यूयॉर्क/अन्य शहर/राज्य सोशल डिस्टेंसिंग की उपयोगिता पर सभी विकल्प तोलते हुये विचार कर रहे हैं। ये देश कोरोना पेण्डेमिक की कहीं ज्यादा मार झेल चुके/रहे हैं।
लॉकडाउन लम्बे समय तक फायदेमन्द नहीं हो सकता। अगर अर्थव्यवस्था लम्बे समय तक लटकी रही तो उसके परिणाम लोगों के जीवन पर ज्यादा खतरनाक होंगे। हम लोग उपकरणों और वेण्टीलेटर्स की कमी को लॉकडाउन बढ़ा कर कम नहीं कर सकते। वैसे भी वेण्टीलेटर्स पर चढ़े आदमी की जीने की सम्भावना 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होती। विदेशों में वेण्टीलेटर्स पर जाने के पहले मरीज से पूरे परिवार से एक बार बात करा देने की मानवीय जरूरत का ध्यान दिया जाता है। क्या पता वेण्टीलेटर लगने के बाद आदमी बच पायेगा या नहीं।
जान और जहान – दोनो मुद्दों पर फ़ूंक फ़ूंक कर कदम रखना है। और, जैसा लगता है, भारतीय जनता (इस्लामिक-लिबरल जमात को डिस्काउण्ट करते हुये) प्रधानमन्त्री को इस बारे में बहुत भरोसेमन्द पाती है। … भगवान करें यह भरोसा बना रहे।
vah pandey ji vah , kya bat hai , apane bahut imandari ke sath us bat aur vad vivad ka sachcha samahan kiya hai jise ajkal TV me ham sabhi shahar ke log dehate hai aur yah samajhate hai ki sare desh me sabhi jagah baval hi baval macha hua hai / mai apane gramin dosto aur gramin chchetr ke students se rojana bat karata hu aur ve sabhi jaisa pane likha hai usi tarah ki bat bata rahe hai ki yaha corona ya lockdown ka asar nahi ke barabar hai sabhi apane kam me lage hai / yahi schchai hai / leki shaharo ke darshak aur shahari janata sab kuchch ulta hi samajhati hai / usaka karan hai sab apane apane swarth me lage hai aur jaisa sahayog garamin khetro ki gjanata ek dusare ko deti hai aisa shaharo me nahi hai / apane shahar aur grami ilako ko vastavikata sabake samane dhar di hai jisaki ajkal bahut avshyakata hai aise hi hame batate rahiye / ajakal mai bhi quarantine me hu aur kahi aa jaa nahi raha hu / apane chchatro ko video confressing ke jariye hi padha raha hu / dhanyavad /
LikeLiked by 1 person