लॉकडाउन : रीता पाण्डेय के मानसिक थकान मिटाने के उपाय – भाग 2


हाल ही में पोस्ट लिखी थी – कोरोना की मानसिक थकान दूर करने के काम। वे काम आगे भी चलते चले जा रहे हैं। खड़ंजा बनाने के लिये खरीदा गया बालू और सीमेण्ट कम पड़ गया। असल में पत्नीजी से स्कोप ऑफ़ वर्क ही बढ़ा दिया। पन्द्रह बीस परसेण्ट नहीं, लगभग डबल कर दिया खड़ंजेे का एरिया।

वे कोरोना काल की नेगेटिव खबरों से उपजी मानसिक निस्सारता को मिटाने के लिये इतनी आतुर हैं कि मैने खर्च में कोई कतर ब्यौंत का साहस ही नहीं किया।

एक ट्रॉली बालू और मंगवाया। बालू गीला था। उसमें घर बनाना या उससे कोई मूर्ति बनाना बच्चों को बहुत रुचता है। घर में किसी खिलौने की बजाय अगर एक अखाड़ा बनाया जाये जिसमें बालू का ढेर हो तो बच्चे उसी में मगन रह सकते हैं। चीनी पांड़े (पद्मजा पाण्डेय) उसी में शिवलिंग बनाने में व्यस्त हो गयी – “दादी, रामचन्द्र जी ने रावन को हराने के लिये इसी तरह शंकर भगवान की पूजा की थी, न?”

“दादी, रामचन्द्र जी ने रावन को हराने के लिये इसी तरह शंकर भगवान की पूजा की थी, न?” – चिन्ना पांड़े

एक छप्पर बनाना है बर्तन मांजने वाली को धूप से बचाने के लिये। प्री-कोविड19 काल में बर्तन मांजने वाली रसोई में मांजती थी; सिंक में। अब रसोई का सोशल डिस्टेंसिन्ग किया जा रहा है। इस लिए उन महिलाओं को बाहर धूप से बचाने के लिये एक मड़ई नुमा स्ट्रक्चर बनाना अनिवार्य हो गया है।

वह बनाने के लिये बांस चाहिये थे। पास के गांव के राजनाथ राय जी से अनुरोध किया। उनके घर के पूरब में बंसवारी है। राय जी ने (और वे हीरा आदमी हैं) दो बांस देने की स्वीकृति दे दी। वे बांस कटवा कर मंगा लिये हैं।

बांस

अगले दिन पिण्टू, काम पर नहीं आया। इधर, पत्नीजी के मन में खड़ंजे का विस्तार करने की योजनायें और जोर पकड़ रही हैं। पिंटू के न आने से एक दिन बरबाद ही नहीं हुआ, कुछ न कर सकने की मायूसी भी हुई।

बांस का लगभग 30-35 फ़ुट लम्बा हिस्सा मन में तरह तरह की कल्पनाशीलता को जन्म देता है। मैं पत्नीजी को कहता हूं कि एसबेस्टॉस का छप्पर बनाने के बाद बचा बांस सहेज कर रखा जाये। कोई उठा कर न ले जाये। (बांस पर सबकी निगाह गड़ी रहती है। बड़े काम का है बांस ग्रामीण जीवन में)।

गांव का यह घर एक कैनवास है – एक विस्तृत कैनवास। जिस पर अपने मन माफिक आड़ी तिरछी लाइनें उकेर कर कैरीकेचर बनाया जा सकता है। पत्नीजी ने यह बहुत गहरे से समझ लिया है। इस समझ कोआत्मसात करने में एक आनंद है। वह उसे महसूस कर रही हैं।

अगले दिन सवेरे ही आ गया पिंटू। काम पर लग गया।

बांस का ढांचा खड़ा करते ही ऊपर टप्पर लग गया।

घर की बगल में, बाहर एक जल का सोर्स, बर्तन धोने के लिये एक प्लेटफॉर्म और धोने के बाद पानी की निकासी का इंतजाम। गांव के वातावरण में यह बड़ी सुविधा है। घर मेँ काम करने वाली महिलायें यहीं नहायें और अपने कपड़े साफ करेंगी। यहीं पर बैठ चाय पियेंगी और बोले-गपियायेंगी। धूप और बारिश से बचाव को टप्पर भी है। कुल मिला कर मेरी पत्नीजी ने उनके लिये एक सोशल प्लेटफार्म बना दिया है – एक हजार रुपया खर्च कर!

और घर के बगल में बर्तन धोने के लिये शेड बन गया।

घर के सौंदर्यीकरण के और प्रोजेक्ट भी मन में उपज रहे हैं। वह तो लॉकडाउन का समय है। बाहर जाना नहीं हो रहा। वर्ना बाजार जा कर गमले और नर्सरी से फूल के पौधे खरीदने का भी ख्याली-पुलाव बन रहा है। सुग्गी (अधिया पर खेती करने वाली महिला; जो सिलाई का काम भी करती है और हमारी सिलाई मशीन ले गई है) से कहा गया है कि वह सिलाई मशीन वापस दे दे। शायद किसिम किसिम के मास्क बनाने का विचार उठा है पत्नीजी के मन में।

लोग तरह तरह के प्रयोग कर रहे हैं। खाना बनाने के प्रयोग, पेंटिंग के, सिलाई के, अध्ययन के, ब्लॉगिंग के, व्लॉगिंग के, पॉडकास्टिंग के… हमारे पास सात बिस्से का एक परिसर है जिसमें प्रयोग किये जा सकते हैं। वही करने का प्रयास कर रही हैं मेरी पत्नीजी।

कल शाम पिंटू का काम खत्म हुआ। फिनिशिंग टच देता पिंटू।

मैं वैसे कहता नहीं, पर बता ही देता हूं राज की बात – वे बड़ी जानदार महिला हैं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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