अपने से शायद मैं वहां नहीं पंहुचा होता। परसों दोपहर में जब वहां गये तो हम चार लोग थे। महराजगंज के पास भक्तापुर में “इंद्रप्रस्थ” वाले श्री राजेंद्र पाण्डेय, ज्ञानपुर के एक नामी वकील श्री रविशंकर दुबे, सूर्या कारपेट के एमडी श्री सूर्यमणि तिवारी और मैं। ग्रुप के प्राइम मूवर तिवारी जी थे। मैं तो तिवारी जी के कहने पर साथ इस ध्येय से हो लिया कि स्वामी अड़गड़ानंद जी को प्रत्यक्ष देख कर आकलन कर सकूं कि उनमें कुछ विलक्षणता है अथवा जन सामान्य ने उन्हें मात्र किंवदंतियां जोड़ जोड़ कर पूजनीय बना दिया है।
अन्य तीनों लोग स्वामी जी के यहां कई बार जा चुके थे और निश्चय ही उनसे (अत्यंत) प्रभावित थे। ये तीनों महानुभाव अपने क्षेत्र में सफलता के शिखर छू चुके लोग हैं और इन्हें अच्छे-बुरे, मेधावी-मूर्ख, सिद्ध-फ्रॉड की गहन पहचान है। अत: स्वामी जी के प्रति एक आकर्षण तो बन ही गया था मेरे मन में। यह तो यकीन हो गया था कि वे विलक्षण तो होंगे ही!
मेरे दो रेल विभाग के सहकर्मियों ने पहले मुझे स्वामी अड़गड़ानंद जी की “यथार्थ गीता” की प्रतियाँ भेंट की थीं। पहली डेढ़ दशक पहले और दूसरी चार साल पहले। मैं यह नहीं कहूंगा कि वह पुस्तक मैंने कवर-टू-कवर पढ़ी है। भग्वद्गीता पर दो-तीन टीकायें पूरी गम्भीरता से पढ़ चुकने के बाद स्वामी अड़गड़ानंद जी की पुस्तक एक प्रॉजेक्ट के रूप में पढ़ने का संंयोग नहीं बना। पर पुस्तक मुझे सरल और सुपठनीय अवश्य लगी थी।
शक्तेषगढ़ स्थित उनके आश्रम में जाते समय मैंने अड़गड़ानंद जी पर इण्टर्नेट पर सामग्री सर्च की। मुझे यह देख आश्चर्य हुआ कि किसी ने उनपर विकीपेडिया पेज नहीं बनाया है। कोई अति सामान्य जानकारी वाल पेज भी नहीं। एक वाराणसी डॉट ऑर्ग डॉट इन साइट पर जानकारी मिली कि सन 1955 में 23 वर्ष की अवस्था में युवा अड़गड़ानंद मध्यप्रदेश में अनुसुईया आश्रम, चित्रकूट में अपने गुरु स्वामी परमहंस से मिले थे। उसके हिसाब से इस समय स्वामी जी की अवस्था 88-89 की होनी चाहिये।
स्वामीजी विगत माह कोरोना संक्रमण ग्रस्त हुये थे और अब उससे मुक्त हुये हैं। उसी के संदर्भ में तिवारी जी ने उनके दर्शन का कार्यक्रम बनाया था। मुझे तो शायद उन्होने इस लिये जोड़ लिया कि वहां जाना मुझे बाहर देखने की बजाय अंदर की यात्रा की प्रेरणा देगा।

चुनार के किले के नीचे से बहती गंगा एक तीखा मोड़ लेती हैं – ऐसा मैंने पढ़ रखा था। गंगा के चुनार पुल से गुजरते हुये पहली बार वह दृष्य देखा। मौसम भारी था और दृष्यता अच्छी नहीं थी। ऐसे में चलते वाहन से कुछ अच्छा चित्र नहीं खींच सका मेरा मोबाइल। पर वह किला देखना बहुत अच्छा लगा। चुनार के आगे करीब अठारह किलोमीटर बाद था अड़गड़ानंद जी का आश्रम।
आश्रम पंहुच कर हम स्वामीजी के काफिले का हिस्सा बन गये। स्वामी जी आश्रम परिसर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने वाहन से जा रहे थे। धीरे धीरे चल रही थी उनकी कार। रास्ते में जो भी आश्रम वासी या अन्य नागरिक होते थे वे हाथ जोड़ खड़े हो जाते थे और लगभग सभी, उनका वाहन सामने से गुजरते समय दण्डवत प्रणाम करते थे। दृष्य ऐसा था, मानो कोई जनरल अपने फील्ड इंस्पेक्शन पर गार्ड ऑफ ऑनर ले रहा हो।

स्वामीजी आश्रम के उस अंश में पंहुच कर आसन पर बैठे। हम भक्तगण उनके समक्ष दरी पर। स्वामीजी, 88-89 की उम्र में भी आकर्षक पर्सनालिटी रखते हैं। कोरोना संक्रमण ने उनके स्वास्थ्य पर असर जरूर डाला है, पर अभी भी उनका व्यक्तित्व किसी अन्य (स्वस्थ) व्यक्ति की तुलना में ज्यादा प्रभाव डालने वाला है। …
वे बीमारी के आफ्टर इफेक्ट्स से असहज जरूर दिखे। उनकी आवाज बुलंद थी, पर शब्द बीच बीच में रुक जा रहे थे। शायद याददाश्त पर जोर पड़ रहा था। शरीर में बेचैनी थी। एक मुद्रा में बैठ पाना भारी पड़ रहा था। अन्यथा योगीजन (और नव साधक भी) तो एक ही मुद्रा में घण्टों स्थिर बने रहने के अभ्यासी होते हैं। निश्चय ही कोविड-19 का दुष्प्रभाव पड़ा था उनके शरीर पर। यह लग रहा था कि उन्हे पोस्ट-कोविड-केयर की बहुत आवश्यकता है। उन्होने अपने हियरिंग एड की भी मांग की। उसको लाने में चार पांच मिनट लगे।
करीब आधा घण्टा स्वामी अड़गड़ानंद जी ने हम लोगों से वार्तालाप किया होगा। उन्होने सूर्यमणि जी से उनके अमेरिका में बनवाये मंदिर के विषय में पूछा। कहा “यह बहुत अच्छा हुआ है। जो किया उचित किया।”। अपने स्वास्थ्य के विषय में टिप्पणी की – “कोरोना बराबर पीछा कर रहा है”। कोरोना अनुभव को उन्होने मृत्यु से साक्षात्कार जैसे अनुभव से जोड़ा। फिर लगभग ट्रांस सी अवस्था में किसी दिव्य सत्ता का कथन कहा – तू मर न पईहै। परमात्मा से संवाद जैसा कुछ रहा होगा बीमारी के दौरान।

कोरोना और उनके स्वास्थ्य के बारे में उपस्थित लोगों की चिंता के प्रत्युत्तर में वे बोल उठे – “तेरी याद में जल कर देख लिया। अब आग में जल कर देखेंगे।” स्वामी जी, सन 1954 की फिल्म “नागिन” के गीत का दार्शनिक प्रयोग कर रहे थे। बहुत कुछ भक्त और भगवान की बातचीत जैसा। पता नहीं अड़गड़ानंद जी उस परम सत्ता और अपनी देह/जीव/आत्मा के सम्बंध किस प्रकार परिभाषित करते हैं। पर इतना तो लगा कि कोरोना संक्रमण ने कहीं न कहीं देह के बहुत अधिक न चलने की मनस्थिति से दो-चार जरूर कराया है। उसका कितना असर प्राण और आत्मा पर पड़ा है, वह समझने के लिए समय काफी नहीं मिला मुझे।

आशा यही की जानी चाहिये कि यह केवल क्षणिक भाव हो उनकी देह पीड़ा का। पर यह भी है कि जीवन मरण के ईश्यू हम सामान्य लोग और योगी-तपस्वी जन अलग अलग प्रकार से देखते हैं। फिलहाल, उनके साथ बिताये कुछ समय से दो तीन बातें मेरे मन में आयीं – कोरोना संक्रमण उम्र के साथ साथ भयानक तरीके से स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है और स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को भी बेचैन कर सकता है। स्वामी जी की ईश्वर से किस तरह की समीकरण चल रही है इस समय, वह महत्वपूर्ण है। वह शायद उनके अब के आत्मानुशासन का दर्शन कराने वाली होगी। यह उनके साथ रहने वाले लोग ज्यादा सूक्ष्मता और स्पष्टता से अनुभव कर सकते हैं। मुझे तो कंफ्यूजिंग सिगनल मिले। … काश उनके साथ ज्यादा समय व्यतीत कर पाता। या काश मेरी आध्यात्म विषयक जानकारी सतही न होती!

संक्षिप्त बातचीत में उन्होने सूर्यमणि तिवारी जी से चर्चा की, उनके आते जाते रहने की बात कही और नारद बाबा (?) का उल्लेख किया। बाद में तिवारी जी से मैंने नारद जी के बारे में पूछा तो पता चला कि वे यहीं बरैनी के पास के गांव के हैं उनके पिताजी उनके बीमार रहने के कारण परमहंस महराज (अनुसुईया बाबा) को सौंप दिये थे। नारद स्वामी अड़गड़ानंद जी के प्रति और आश्रम के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं।
मुझे यह भी जिज्ञासा बार बार लगती रही कि स्वामीजी अपने जीवन काल में अपने तत्वज्ञान अनुभव दर्शन के बाद जिस वृहत आश्रम व्यवस्था को खड़ा किये हैं, उसको ले कर और भविष्य में उसकी आवश्यकता/स्वरूप को ले कर क्या सोचते हैं। आशा करता हूं कि वे शतायु होंगे और अपना मंतव्य और स्पष्ट करेंगे। यह मेरी अपनी सोच भर हो सकती है। शायद तत्वज्ञानी इस तरह के अगर मगर और भूत भविष्य की गणना में नहीं पड़ते। … मैं श्री अरविंद आश्रम के दो-तीन महान साधकों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। वे इस तरह की सोच के पचड़े में नहीं पड़े और अचानक संसार से चल भी दिये। मेरे सामने आदिशंकराचार्य का भी उदाहरण है, जो आजकल की भाषा के अनुसार अभूतपूर्व 20-20 की तेज पारियां खेल कर इस देश के कोने कोने में हिंदुत्व के नये प्रतिमान, नये अर्थ, नयी व्याख्यायें दे कर छोटी सी उम्र में चल दिये और उन्होने जो कुछ कहा, बताया, बनाया, वह आज भी मनीषी समझने जानने का प्रयास ही कर रहे हैं।
फिर भी; सम्भवत: आश्रम के भविष्य के स्वरूप और इस क्षेत्र में उसके योगदान की उनकी योजनायें तो होंगी ही। अड़गड़ानंद जी की इस क्षेत्र में बहुत व्यापक फॉलोइंग है। लोगों के जीवन को वे और आश्रम गहरे से प्रभावित करते हैं और उनके भविष्य को दिशा देने में आश्रम की सशक्त भूमिका हो सकती है।
खैर, स्वामीजी और उनकी कोटि के संतों के लिये तो इस जीवन की परिणिति में मोक्ष धाम होगा। फिक्र तो मुझ जैसों को है – जिनके लिये “पुनरपि जननम, पुनरपि मरणम, पुनरपि जननी जठरे शयनम” अनेकानेक बार होनी है। …

स्वामीजी के मंदिर में काफी समय बैठे हम लोग। कुछ नाश्ता भी हुआ। प्रसाद और भभूति की पुड़ियाँ भी मिलीँ। वापसी में आश्रम की और स्वामीजी से मुलाकात की सोचता रहा मैं। मेरे साथ के तीन अन्य लोग तो बार बार आते जाते रहते हैं शक्तेषगढ़। मेरा वहां कभी जाना होगा या नहीं कह नहीं सकता।

बहरहाल स्वामीजी की यथार्थ-गीता अपने किण्डल में भर ली है और उसे आगामी महीनों में पढ़ने के लिये मार्क भी कर लिया है – वह स्वामी अड़गड़ानंद जी को समझने मे सहायक होगी!
“तेरी याद में जल कर देख लिया। अब आग में जल कर देखेंगे।” – यह बार बार गुनगुनाता रहा मैं। अगले दिन सूर्यमणि जी ने बताया कि स्वामीजी रात में ही दिल्ली चले गये। शायद वहां पोस्ट-कोविड-केयर (अगर जरूरत पड़े, तो) बेहतर मिले। वहां स्वामीजी का आश्रम मेदांता अस्पताल से चार पांच कोस की दूरी पर है। किसी भी आपात स्थिति के लिये उसका प्रयोग सम्भव होगा। अगर हम उस दिन उनसे मिलने नहीं गये होते तो शायद शीघ्र मिलना न हो सकता था।
उनके यहां जाना और उनके आमने सामने के दर्शन, यह महत्वपूर्ण अनुभव रहा मेरा। उनसे परिचय की डीटेल्स तो जुड़ती रहेंगी।