तुलसी बाबा की चौपाई है – महा भीर भूपति के द्वारे, रज होई जाई पसान पोवारे। (राजा के द्वार पर भारी भीड़। शिलाखण्ड भी फैंका जाये तो भीड़ में पिस कर मिट्टी बन जाये)। आजकल बैंकों की ग्रामीण शाखाओं में वैसा ही माहौल है।
सरकार ने पैसा दिया है ग्रामीणों, गरीबों को। अपने मुड़े तुड़े बैंक के पासबुक लिये ग्रामीण बैंक के सामने लाइन लगा रहे हैं। हर एक ब्रांच के बाहर वही दृष्य है। कुछ दिन तो घोर अव्यवस्था/अराजकता थी। अब बैंक की सिक्यूरिटी वाले सोशल डिस्टटेंसिंग के नॉर्म के आधार पर गोले खींच कर उसमें बैठने के लिये अनुशासित कर रहे हैं लोगों को।

बैंक के सामने 10-15 लोगों की दो लाइनें (स्त्री और पुरुषों की) तो इस नॉर्म के आधार पर लग जाती है। पर भीड़ उससे ज्यादा की होती है। दस बजे बैंक खुलने के समय पर ही लोग जमा मिलते हैं। उसके बाद बढ़ते जाते हैं।
औरतों के खाते ज्यादा हैं। वीमेन एम्पावरमेण्ट के नाम पर जन धन खाते उनके ज्यादा खुले हैं। इस लिये उनकी लाइन भी ज्यादा बड़ी लगती है। सोशल डिस्टेंसिंग की 10-15 की लाइन के बाद महिलायें इस प्रकार लगी दिखती हैं लाइन में –

ग्रामीण लोगों के खाते में पैसा तो डिजिटल तकनीक से आ जा रहा है। इस तकनीक की ताकत से भी ग्रामीण परिचित है। जैसे ही टीवी पर देखता है कि खातों में सरकार ने पैसा डाल दिया है, बैंक के सामने भीड़ लगनी प्रारम्भ हो जाती है। वे जानते हैं कि पैसा बटन दबाते खाते में आ जाता है।
पर वही डिजिटल तकनीक उनके खर्चे में अभी नहीं प्रवेश कर पायी है। अपनी हर जरूरत के लिये उन्हें कैश चाहिये। हार्ड कैश। मैँ अपने मोबाइल रीचार्ज, दवा की खरीद, हार्डवेयर और इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स के लिये पेटीएम या फोनपे एप्प से पेमेण्ट करता हूं। इन ग्रामीणों में से कई – लगभग आधे, यूट्यूव पर वीडियो देख रहे हैं; पर अपने खर्चे एप्प के माध्यम से नहीं कर सकते। अपने बैंक खाते को मोबाइल पर नहीं देख पाते या देखते।
कई ग्रामीण फीचर फोन वाले हैं; पर फीचर फोन से अपने खाते को एक्सेस कर पाना तो पढ़े लिखे के लिये दुरुह काम है, बेचारे ग्रामीण तो वह कर ही नहीं सकते।
जो लाइन लगी है, वह केवल खाते से पैसा निकालने के लिये नहीं है। बहुत से तो मात्र यह जानना चाहते हैं कि खतवा में पईसवा आइ कि नाहीं (खाते में पैसा आया है या नहींं)।
लोग डिजिटल लिटरेसी पायें, उसके लिये एक मुहीम वैसे ही चलाई जाये, जैसे जन धन खाते खोलने के लिये चलाई गयी थी। Crowding at the bank is colossal waste of national resources. And dangerous for health also.
बाई द वे, मैंने यहां कस्बे के लगभग आधा दर्जन दुकानदारों को प्रेरित किया है कि वे फोन पे, पेटीएम या अन्य वैलेट के माध्यम से पैसा लिया करें। मैंने पेट्रोल पम्प पर कोई पेमेण्ट कैश से नहीं किया है। अपने बर्तन मांजने वाली को भी उसके खाते में सीधे ट्रांसफर करता हूं मेहनताना। गांव में रहते हुये भी – जहां लोग कैशलेस का नाम ही नहीं लेते, मेरा दो तिहाई खर्च ऑन लाइन, भीम एप्प, एटीएम या बैंक के एप्प द्वारा स्थानांतरण से होता है।
जन धन के खातों में बैलेंस जानने के लिये एक पैनल का डिजाइन बनना चाहिये। उस पैनल में खाता धारक अपना खाता नम्बर भरे और अपना व्यक्तिगत पिन (जो बैंक खाता खोलते समय या ऑन डिमाण्ड उपलब्ध कराये) भरने पर पैनल उस व्यक्ति/महिला के खाते का बैलेंस और पिछले तीन या पांच ट्रांजेक्शन स्क्रीन पर बताये। इससे एक कर्मचारी की जरूरत कम हो जायेगी और बैंक के सामने लगने वाली भीड़ भी आधी रह जायेगी।

और खाते से पैसा निकालने के लिये ऑड/ईवन नम्बर के खातेदार ऑड/ईवन नम्बर की तारीख पर ही बैंक जायें, वह एनफोर्स किया जा सकता है। उससे भीड़ चौथाई रह जायेगी। वह मैनेजेबल होगी।
मुझे बैंक के दर्शन बहुत कम करने होते हैं। छ महीने में एक बार, औसत। वह भी तब जब पूरे इलाके के एटीएम काम नहीं कर रहे होते।
बहुत निराशा होती है बैंकों में या उनके सामने लगी भीड़ या लाइन देख कर।
अच्छी जानकारी है !
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