बीस अप्रेल 2018 की पोस्ट, जो फेसबुक नोट्स ने गायब कर दी है। फेसबुक अपनी नोट्स की सेवा अक्तूबर 2020 से बंद कर चुका है। इस लिये मुझे हार कर अपनी कुछ पोस्टें जो फेसबुक पर थीं, ब्लॉग में उतारनी पड़ रही हैं। 😦
उनमें से एक पोस्ट डा. अनिल पोखरिया पर है। डा. पोखरिया यहां अगियाबीर की पुरातत्व खुदाई स्थल से जले हुये अनाज के सेम्पल ले कर गये थे। उन सेम्पल्स की डेटिंग करनी थी उन्हें। किस समय के बीज हैं? उससे बहुत कुछ पता चलेगा कि नियोलिथिक (उत्तर पाषाण युग का) मानव इस टीले पर कब आया? सेम्पल लिये पौने तीन साल हो गये हैं। बी.एच.यू. की पुरातत्व विभाग की टीम (डा. अशोक कुमार सिंह और डा. रविशंकर) अपनी रिपोर्ट लगभग बना चुके हैं। उन्हे इंतजार है बीजों की कार्बन डेटिंग का।
डा. पोखरिया को मैंने पिछले सप्ताह फोन किया। डा. रविशंकर से भी बात की। उनके अनुसार अभी जो अतीत की तारीख निकल कर आयी है, वह ताम्र पाषाण मानव के युग की है। पेलियोसाइंस की मदद से अभी वे अभी वे नियोलिथिक काल में स्थापित नहीं कर पाये हैं अगियाबीर को। पर दोनो सज्जन अभी भी आशावान हैं। और अभी तो अस्सी फीसदी अगियाबीर के टीले का पुरातात्विक अध्ययन बाकी है। मेरे विचार से अगियाबीर टीले की पुरातनता की तारीख को और अतीत में धकेल पाने की बजाय उस टीले में नगरीय सभ्यता के और पुख्ता प्रमाण पाना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। पर एक होड़ सी है अवैध उत्खनन कर मिट्टी बेच कर पैसा कमाने की जुगत में बैठे माफिया में और पुरातत्वविदों में। कौन जीतेगा?
कोई जीते, मैं तो साक्षी भर हूं। जो होगा वह ब्लॉग पर लिखने का विषय होगा।
आप इस प्रस्तावना के बाद डा. अनिल पोखारिया की अगियाबीर और गंगा तट पर किये कार्य पर पुरानी पोस्ट देखें –
डा. अनिल पोखरिया वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं बीरबल साहनी इन्स्टीट्यूट ऑफ पेलियोसाइंसेज, लखनऊ में। वे आर्कियॉलॉजिकल साइट्स पर उपलब्ध पाषाणयुग के वनस्पति अवशेषों – मसलन जले हुये अन्न के टुकड़ों, बीजों आदि का अध्ययन कर यह पता लगाते हैं कि उस समय के मानव की फूड- हैबिट्स कैसी थीं, उस समय का वातावरण कैसा था, ट्रेड लिंक्स कैसे और कहां से थे और लोगों का आदान-प्रदान या पलायन कैसे हुआ होगा।

मुझे पहले मालुम नहीं था कि विशेषज्ञता की यह – पेलियो-एथेनो-बोटनी ( Paleoethnobotany ) – भी कोई विधा है। पर अगियाबीर की नियोलिथिक/कैल्कोलिथिक पुरातत्व साइट पर कल उनसे मुलाकात के बाद लगा कि भारतवर्ष की प्रागैतिहासिक विरासत संजोने का बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं डा. अनिल और उनके प्रकार के विशेषज्ञ गण!
आज (बीस अप्रेल 2018) गंगा तट पर मैं और मेरी पत्नीजी डा. अनिल के पास पंहुच गये। अगियाबीर की खनन की ट्रेंचों में से निकली मिट्टी वहां ला रहे थे श्रमिक। गंगा के पानी में वह मिट्टी खंगाल कर उसमें से जले (या कार्बोनाइज्ड) अन्न के अवशेषों का अध्ययन करने जा रहे थे अनिल जी। उन्हें करीब 15-20 तसले मिट्टी की आवश्यकता थी इस प्रयोग की। तीन चार तसले मिट्टी ला चुके थे श्रमिक। और मिट्टी लाये जाने की प्रतीक्षा करते हुये उन्होने अपने कार्य के बारे में हमें बताया।

करीब बीस-बाइस सालों से पुरातत्व साइट्स पर इस प्रकार का अध्ययन कर रहे हैं पोखरिया जी। अभी वे लखीसराय, बिहार के पास एक आर्कियॉलॉजिकल साइट से हो कर आये थे। उनके साथ आये सज्जन बता रहे थे कि पिछले 8-10 दिन से वे पुरातत्व साइट्स पर ही हैं। अपने कार्य के बारे में मुझे समझाने में वे बड़े सरल शब्दों में बात कर रहे थे। दो दशकों की विशेषज्ञता की रुक्षता कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रही थी। साइट पर खुदाई करने वाले लोगों के लिये वे नाश्ते की चीजें खुद ले कर आये थे। सरकारी ब्यूरोक्रेसी में जो खुर्राटपन नजर आता है (और मैं जिसका अंग रह चुका हूं) वह उनके व्यक्तित्व में लेश मात्र भी नजर नहीं आता था। उनके साथ वार्तालाप में एक नयी विधा को जानने और नये प्रकार के विशेषज्ञ से मिलने का जो आनन्द था, वह उनके व्यक्तित्व की सरलता से और भी बढ़ गया था!
डा. अनिल ने बताया कि कार्बोनेटेड अन्न से कुछ अनुमान तो उसके आकार-प्रकार से; अर्थात अनाज की मॉर्फ़ोलॉजी से लग जाते हैं। विस्तृत अध्ययन के लिये वे इसका लैब में परीक्षण करते हैं। अन्न की आयु पता करने के लिये रेडियोकार्बन (सी-14) डेटिंग या एएमएस (एक्सीलरेटर मास स्प्रेक्टोमीट्री) डेटिंग तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। सी-14 डेटिंग की सुविधा उनकी संस्थान की लैब में उपलब्ध है। एएमएस डेटिंग के लिये सेम्पल पोलेण्ड या चीन भेजने होते हैं।
मिर्जापुर के विन्ध्य क्षेत्र में पुरातत्व स्थल के अपने अनुभव के बारे में डा. अनिल ने बताया कि वहां उन्हें शरीफा के बीज मिले। आमतौर पर धारणा यह है कि शरीफ़ा भारत में पोर्चुगीज लाये। तदानुसार यह 15-16वीं सदी में आया होना चाहिये था। पर उन्हें जो बीज मिले वे तीन चार हजार साल पहले के थे। कुछ अन्य पुरातत्व स्थलों पर भी शरीफ़ा के बीज मिले। ये बीज मानव बस्ती के आसपास मिले, जंगल में नहीं। इससे यह पता चलता है कि बहुत पहले भी किसी प्रकार यहां और योरोप के ट्रॉपिकल जलवायु स्थलों के बीच किसी न किसी प्रकार का मानवीय आदानप्रदान था। पेलियोएथनोबोटानिकल अध्ययन से यह भी पता चला है कि आज से दस हजार साल पहले लौकी एशिया-अफ़्रीका से अमेरिका पंहुची! डा. अनिल ने बताया कि इस सन्दर्भ में हाल में एक पेपर पब्लिश हुआ है।
डा. अनिल से बातचीत में ही पता चला कि अरहर की दाल गांगेय प्रदेश में पहले नहीं मिलती। ओडिसा से सम्भवत यहां आयी। इसी प्रकार कटहल दक्षिण भारत से उत्तर के गांगेय और सरयूपार इलाकों में आया।
बहुत रोचक है सभ्यताओं और उनके साथ वनस्पतियों का मानव आदान-प्रदान या पलायन से प्रभावित होना। आर्कियोबोटानी पुरातन रहस्य की कई परतें खोलती है और पुरातत्व अध्ययन को कई नये आयाम प्रदान करती है।
अपना प्रयोग प्रारम्भ करते हुये, डा. अनिल ने एक टब में पुरातत्व स्थल से लाई मिट्टी उंडेली। इस काम के लिये उन्होने गंगा किनारे एक प्लेटफार्म बनवाया था। उस टब को पानी से भर कर मिट्टी को अपने दस्ताने पहने हाथ से खूब हिलाया। मिट्टी के मोटे गीले ढेले हल्के मसल कर तोड़े जिससे उनके बीच के बीज अलग हो सकें। पूरी तरह मिलाने के बाद एक 0.6मिमी की छन्नी से पानी निथार कर छन्नी में राख के कण और जले (कार्बोनेटेड) बीज अलग किये। उनकी पैनी निगाहों ने कुछ दाल और जौ के बीज तत्काल ही पहचान लिये और हमें दिखाये।

हम जिसे मात्र मिट्टी समझ कर चल रहे थे उसमें राख और बीज भी थे, इसकी कल्पना भी नहीं थी हमें।
डा. पोखरिया ने बताया कि अपने साथ लाये कपड़े के थैलों में वे ये राख और अवशेष सुखा कर लैब में अध्ययन के लिये ले जायेंगे।

अपने आधे घण्टे के डिमॉन्स्ट्रेशन में डा. अनिल पोखरिया जी ने हमें बता दिया अपने कार्य करने की तकनीक का मोटा अन्दाज। बाकी, उनको मैने अपना ईमेल पता दे दिया है इस अनुरोध के साथ कि वे मुझे इस विषय में कुछ पठनीय सामग्री, छपे पेपर्स और नेट पर उपलब्ध सामग्री के लिंक्स भेज दें। अब, रिटायरमेण्ट के बाद इस प्रकार के अनूठे विषयों पर जानकारी हासिल करना ही महत्वपूर्ण हो गया है मेरे लिये। आगे जीवन में वह जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके और डा. अनिल जैसे लोगों से जितना ज्यादा से ज्यादा ग्रहण कर सकूं – यही इच्छा रहेगी भविष्य की!
