मिशन मचिया पीछा नहीं छोड़ रहा :-)

machiya
machiya मचिया

चार दिन पहले जब नीरज घर से मचिया का पैकेट ले कर गये थे, तो लगा कि महीने भर से चल रहा जुनून और उसका बोझ खत्म हो गया। सर्दी भी कम हो गयी थी। लगा कि अब सामान्य जिंदगी, अपने ढर्रे पर शुरू होगी। साइकिल उठा सवेरे घण्टा डेढ़ घण्टा घूमना, देखना और लिखना। दिन में चिड़िया की तरह चुगते हुये अखबार, पत्रिकायें या पुस्तक पढ़ना; बस।

पर, फिर लगा कि अभी दो मचिया अपनी बिटिया के लिये और दो अपने घर के लिये बनवानी बाकी हैं। रघुनाथ जी के यहाँ नोयडा में जो दो पंहुच गयी हैं, जो उन्होने अपने ड्राइंग कक्ष में सजा कर फोटो भी पोस्ट कर दी।

दिन भर उनके मैसेज और फोन आते रहे। सम्प्रेषण चलता रहा। हमने उन्हे कहा कि इसे हमारे क्रियेटिव -फन (आनंद) के लिये रहने दें; उसकी कीमत चुकाने की जिद न करें। पर उन्होने सीधे न सही, उल्टे तरीके से अपना रास्ता निकाल ही लिया। रिटर्न गिफ्ट के लिये जो कुछ उन्होने चुना, वह ऐसा है, जिसे कोई इनकार ही नहीं कर सकता! वे बड़े ही प्रिय दम्पति हैं – रघुनाथ और गीतांजलि। उम्र भी शायद हमारे आसपास होगी। ट्विटर पर वैसे जुड़े थे, मचिया ने और जोड़ दिया!

मैंने उस गुड़ बनाते किसान का चित्र न खींचा होता तो यह झंझट ( 🙂 ) ही न खड़ा हुआ होता। न रघुनाथ जी मचिया देख मचलते, न हमने कारपेण्टर, पेण्ट करने वाले और मचिया बुनने वाले सज्जनों की तलाश की होती। न गांव को इस कोण से देखा होता। अब तो मैं राजबली विश्वकर्मा के माध्यम से पिछले सत्तर साल में हुये ग्रामीण जीवन के परिवर्तन का खाका समझने और लिखने के मनसूबे बांधने लगा हूं। और यह एक ‘गरीब मचिया’ से शुरू हुआ!

मचिया पेण्ट करते हुये अशोक

और अब तो रघुनाथ जी कह रहे हैं कि गांव के कारीगरों को प्रोत्साहन देने के लिये हमें मचिया मिशन को आगे बढ़ाना चाहिये।

मचिया विषयक पोस्टें इस लिंक को क्लिक कर देखें।

संतोष मिश्र जी ने अमेजन पर मिलने वाली जो मचिया पोस्ट की है, वह तो इस देसी मचिया से कहीं अलग, कुछ अर्बन टाइप लग रही है और लागत भी देसी नहीं, अर्बन ही है! –

देसी और शहरी सामान का अंतर रहेगा ही। यहां कारीगर जो बनाता है वह हर एक पीस दूसरे से अलग होता है। एक और दूसरे में कारीगर की मनस्थिति, आसपास का वातावरण, उपलब्ध सामग्री – सब का असर होता है। उसके सामने लक्ष्य एक ही पीस को बनाना होता है। मास-प्रोडक्शन की वह सोच नहीं रहा होता। उसके सामने एक ग्राहक और एक पीस की जरूरत होती है। जब सामने 100 या हजार का ऑर्डर हो, तब मानकीकरण होगा। तब कारीगर से कारखाना बनेगा और रूरल से रूरर्बिया (rural-urbia) या सबर्बिया बनेगा।

कुल मिला कर लगता है, हम पीछा छुड़ाना भी चाहें तो यह मचिया मिशन जल्दी पीछा नहीं छोड़ेगा! 😆

राजबली विश्वकर्मा – लुहार भी हैं और खाती भी। गायत्री परिवार से जुड़े राजबली सामान्य गांव वासी से अलग और सुलझे हुये व्यक्ति हैं।

वैसे भी राजबली से मैं आगे मिलना चाहूंगा ही। वे एक सुलझे हुये, कर्तव्यपारायण, नैतिक और आम से हट कर जीव हैं। उनके साथ बातचीत कर आनंद आता है। उनसे दोस्ती का अपना आनंद है!

मचिया बीनने वाले रामसेवक जी भी मेरे माली हैं और उनका पूरा परिवार बिना किसी छल छद्म के अपने काम से काम रखता है और हर व्यक्ति कर्मठ है। अशोक तो मेरे घर के व्यक्ति जैसे हैं। इन सब के साथ मचिया को ले कर जुड़े रहना गांव को गहरे से अनुभव करना है!

मचिया बीनते रामसेवक बिंद।

फिलहाल दो मचिया पेण्ट हो रही हैं। फिर उनपर सुतली की बुनाई होगी। रामसेवक जी का कहना है कि अगर हम इस बार दो अलग अलग रंग की सुतली ले आयें (पता नहीं मिलती है या नहीं) तो मचिया और डिजाइनदार हो जायेगी। अब उसकी भी तलाश की जायेगी।

मिशन मचिया पीछा नहीं छोड़ रहा। पर यह भी है कि हम पीछा छुड़ाना भी नहीं चाहते! क्रियेटिव आनंद मिल रहा है उसमें। 🙂


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

2 thoughts on “मिशन मचिया पीछा नहीं छोड़ रहा :-)

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