मेरे खींचे एक चित्र में गुड़ बनाने वाले किसान के पास ताजा बनते गुड़ के लालच में एक छोटा बच्चा मचिया पर बैठा था। जब मैंने वह चित्र खींचा या सोशल मीडिया पर डाला, तो मेरे मन में मचिया था ही नहीं। किसान एक परात में गर्म श्यान गुड़ की भेलियां बना रहा था, ध्यान उसी पर था। पर ट्विटर पर गये उस चित्र में ए.एस. रघुनाथ जी को मचिया ही नजर आयी। 🙂

उस चित्र को देख कर रघुनाथ जी ने अपनी ट्वीट में मचिया की इच्छा व्यक्त की थी –
वह ट्वीट लगता है मन के किसी कोने में बनी रही। मेरे ड्राइवर ने सुझाव दिया कि वैसे तो लोग मचिया का प्रयोग आजकल करते नहीं हैं; पर भोला विश्वकर्मा सम्भवत: मचिया बना सकता है।
उसके सुझाव पर आठ जनवरी को मैं श्री ए.एस. रघुनाथ जी के लिये मचिया तलाशते, सपत्नीक द्वारिकापुर के खाती भोला विश्वकर्मा के यहां गया था। द्वारिकापुर का रास्ता चार पहिया वाहन के लिये सरल नहीं है। फिर भी हम रेलवे लाइन के बगल से कच्चे, गिट्टी भरे रास्ते पर वाहन किसी तरह साधते वहां पंहुचे।
भोला ने चार पांच दिन में मचिया का लकड़ी का ढांचा बना कर देने का वायदा किया था। उसके बाद उस ढांचे पर हमें किसी जानकार को पकड़ कर सुतली से बिनवाना होता।
मैं भोला से बात करने के बाद बहुत आशान्वित हुआ कि सप्ताह भर में मचिया बन कर तैयार हो जायेगी।
पर उसके बाद मैंने भोला की लकड़ी की टाल-दुकान पर तीन चक्कर लगाये। अपने ड्राइवर को भी चार बार अलग से भेजा। कई बार उसे फोन भी किया। पर उसने आज नहीं कल की टरकाऊ बात ही की। कभी कहा कि वह दुकान पर नहीं है, नाई के यहां हजामत बनवा रहा है। कभी उसके लड़के ने फोन उठाया और पिता से बात कराने का वायदा किया, जो पूरा नहीं हुआ।
अंतत: दो सप्ताह बाद मुझे यकीन हो गया कि भोला बनाने वाला नहीं। शायद वह लकड़ी के फट्टे जोड़ कर तख्त या गांव के किसानों के लिये खुरपी-फावड़ा के बेंट भर बनाता है। उसके पास साधारण काम की भरमार है और उसको उसी से फुर्सत नहीं है। फुटकर कामों के लिये गांव वाले उसका तकाजा करते रहते हैं या उसके पास बैठ अपना काम निकालते हैं। उसका बिजनेस मॉडल मेरे जैसे ग्राहकों के लिये ‘ऑफ-द-लाइन’ सामान बनाने का है ही नहीं।
गांवदेहात के अलग अलग प्रकार के कारीगर इसी सिण्ड्रॉम ग्रस्त हैं। भऊकी, दऊरी या छिटवा/खांची बनाने वाले भी शहरी जरूरत के हिसाब से अपने उत्पाद के डिजाइन में परिवर्तन नहीं करते। उन्हे मैंने नये प्रकार की भऊंंकी बनाने का बयाना भी दिया पर बार बार कहने पर भी बनाया नहीं। बयाना का पैसा भी वापस नहीं मिला। वे अपने सामान्य कामों में व्यस्त रहते हैं और वही उन्हे सूझता है।
इसी तरह कुम्हार भी सामान्य दियली, कुल्हड़ के इतर कुछ भी बनाने में रुचि नहीं दिखाते। मैंने उनके साथ भी माथापच्ची की कि वे कोई वेस, कोई नायाब तरीके का गमला बनायें; पर वे नहीं कर पाये।
खाती-कारपेण्टर का हाल तो भोला विश्वकर्मा ने स्पष्ट कर दिया। जो काम वे कर रहे हैं, उन्हें बहुत ज्यादा पैसे नहीं मिलते और उनका व्यवसाय बढ़ने की सम्भावनायें भी नहीं हैं। व्यवसाय बढ़े तो उसके लिये उनके पास रिसोर्सेज या डिमाण्ड को पूरा करने की सोच भी नहीं है। वे एक दिन से दूसरे दिन तक का जीवन जीना ही अपना ध्येय मानते हैं। 😦
पर उसके बाद मैंने भोला की लकड़ी की टाल-दुकान पर तीन चक्कर लगाये। अपने ड्राइवर को भी चार बार भेजा। कई बार उसे फोन भी किया। पर उसने आज नहीं कल की टरकाऊ बात ही की। अंतत: दो सप्ताह बाद मुझे यकीन हो गया कि भोला बनाने वाला नहीं।
यही क्या, आप किसान को भी ले लीजिये। वह अपने कम्फर्ट जोन में गेंहू-धान की मोनो कल्चर में ही लिप्त है। कोई नया प्रयोग करना ही नहीं चाहता। हमने बार बार कहा अपने अधियरा को कि वह हल्दी, अदरक या सूरन, सब्जी उगाने की पहल करे। हम उसका घाटा भी हेज करने को तैयार थे; पर वह आजतक हुआ नहीं। 😦
खैर; अब मेरे पास विकल्प था बनारस की दुकानों में मचिया तलाशने का। विशुद्ध गंवई चीज शहर में तलाशने का!
कल हम बनारस जा कर यह तलाश करने वाले थे, ‘नयी सड़क’ की गलियों में। इसी बीच मैंने ग्रामीण विकल्प टटोलने के लिये अपने यहां जेनरेटर ठीक करने वाले शिवकुमार विश्वकर्मा से फोन पर बात की। शिवकुमार के घर में बाकी लोग बनारस में खाती-लुहार का काम भी करते हैं। रोज आते जाते हैं।
शिवकुमार ने कहा कि बेहतर है मैं सवेरे उनके यहां आ कर उनके पिताजी से बात कर लूं। वे यह सब काम करते हैं।
मैं सवेरे गया उनके पिता जी से मिलने। कोहरा घना था, पर फिर भी घर से निकल कर गया। और वहां शिवकुमार के पिताजी से मिल कर लगा कि सही जगह पंहुच गया मैं। पूरा परिवार अलाव जला कर कोहरे में गर्माहट तलाशता बैठा था। आकर्षक मूछों वाले शिवकुमार के पिताजी एक मोटे लकड़ी के टुकड़े को बसुले से छील रहे थे। उनके रोबदार व्यक्तित्व, काम करने के सिद्धहस्त अंदाज और बोलने के तरीके से प्रभावित हुआ मैं। शिवकुमार ने बताया कि भट्ठा पर धधकते कोयले की गर्मी से बचने के लिये वहां काम करने वाले मोटी खड़ाऊं पहनते हैं। उसके पिताजी वही बना रहे हैं।

शिवकुमार के पिताजी ने अपना नाम बताया राजबली विश्वकर्मा। मुझे बैठने के लिये एक कुर्सी मंगाई। सादर बिठा कर मुझसे उन्होने आने का प्रयोजन पूछा।
“आपके पास आने के पहले मैं द्वारिकापुर के भोला विश्वकर्मा के पास गया था। उन्होने मचिया बनाने के लिये चार दिन का समय मांगा और टालमटोल करते दो हफ्ते गुजार दिये। तब मुझे लगा कि शिवकुमार से बात की जाये। उन्होने सुझाया कि आपसे मिल लूं।”
राजबली जी ने मेरी बात सुन कर अपने पोते से मचिया के गोड़े (पाये) घर के अंदर से मंगवाये। पूछा कि क्या ऐसे ही चाहियें? उनपायों की बनावट और लकड़ी – दोनो ही अच्छे लगे।

उन्होने पाटी के लिये लकड़ी और बांस, दोनो का विकल्प बताया। यह भी कहा कि लकड़ी की पाटी मंहगी पड़ेगी और बांस की पाटी सस्ता होने के बावजूद ज्यादा मजबूत होगी। मैंने उन्हे दोनो प्रकार के एक एक नमूने बनाने को कहा। मचिया के गोड़े वे सामान्य के हिसाब से 12 इंच के रखना चाहते थे। मैंने कहा कि दो इंच बढ़ा कर रखें। शहरी आदमी बहुधा घुटने के दर्द के मरीज होते हैं। उनके लिये मचिया थोड़ी ऊची हो तो बेहतर होगी। और अगर बाद में लगे कि पाये बड़े हैं तो काट कर छोटे तो किये जा सकते हैं। राजबली मेरी बात से सहमत दिखे।
नाप और डिजाइन तय होने पर राजबली ने कहा – “मेरा काम (भोला की तरह) टालमटोल का नहीं है। बनने में जितना समय लग सकता है, उतने की ही बात करूंगा मैं और समय पर देने का पूरी कोशिश करूंगा। आप सोमवार को तैयार हुआ मान कर चलिये। बनते ही शिवकुमार आप को फोन पर बता देगा।”
“बहुत अच्छा! आपकी बात से लगता है कि मचिया बन जायेगा और अच्छा ही बनेगा!”
राजबली जी से तो पहली बार मिला था मैं। पर उनके लड़के और पोतों – ईश्वरचंद्र और विद्यासागर – से मेरा कई बार काम कराना हो चुका है। वे सभी बहुत सज्जन और नैतिकता से ओतप्रोत हैं। ज्यादा दाम मांगने या समय पर उपस्थित न होने की बात उनके साथ नहीं हुई। राजबली का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली लगा। पहले पता होता कि राजबली कारपेण्टर का काम करते हैं, तो भोला की बजाय उनसे ही सम्पर्क करता।
बहरहाल मुझे दो – तीन दिन बाद अच्छी गुणवत्ता का मचिया मिलने की उम्मीद हो गयी है। हमने बनारस की गलियों को तलाशने का विकल्प फिलहाल ताक पर रख दिया है। रघुनाथ जी की ट्वीट को एक महीना हो गया है। अब तक गांव में मचिया बन नहीं सकी। लोगों ने यह भी कहा कि काहे मचिया की सोच रहे हैं आप। इससे बढ़िया तो प्लास्टिक का काफी ऊंचा वाला अच्छा पीढ़ा हो सकता है।
पर लोग क्या जानें एक मचिया की तलब को। बहुत कुछ वैसी ही होती है, जैसे राजबली जी को खड़ाऊँ बनाते देख मैंने उनसे कहा कि मेरे लिये भी एक जोड़ा खड़ाऊँ बना दें।
खैर, खड़ाऊं तो बनना, पहनना बाद में; फिलहाल मचिया बने। अब दाव अब राजबली जी की साख पर है! 😀
सोम (या मंगलवार तक इंतजार) करता हूं।

Nice
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