महुआ टपकने लगा है और अन्य बातें

उसकी माँ आधिया पर खेत जोतती है टुन्नू पण्डित का। मां अपने बड़े लड़के के साथ चने की फसल खलिहान में समेट रही थी। इस बच्चे के अभी काम में लगने के दिन नहीं आये हैं। स्कूल भी बंद हैं। वह टुन्नू पण्डित के परिसर में बहेड़ा के गिरे फल बीन कर उनकी गिरी फोड़ कर खा रहा था। पत्थर की एक बेंच पर बैठा था और उसी पर एक दूसरे पत्थर से बहेड़ा की गिरी (बीज) फोड़ रहा था। पूरे मनोयोग से। मेरा चित्र लेना भी नहीं देख रहा था।

वह एक पत्थर से बहेड़ा के बीज फोड़ कर खा रहा था। गरीब का बदाम

बहेड़ा के फल गिरते महीना से ऊपर हो गया। अब महुआ भी टपकने लगा है। चार पांच दिन हो गये, आसपस टपक रहा है महुआरी में। बच्चे एक एक पन्नी (पॉलीथीन की थैली) में महुआ के फूल बीनने लगे हैं। जुनून सा दिखता है उनमें महुआ बीनने का। गांव की बभनौटी की महुआरी में तो यह महिला भी महुआ बीनती दिखी। करीब डेढ़ महीना बच्चे और महिलायें व्यस्त रहेंगे महुआ उपक्रम में।

गांव की बभनौटी की महुआरी में तो बच्चों के साथ यह महिला भी महुआ बीनती दिखी।

उपले बनाने का काम, बावजूद उज्वला योजना के घनघोर विज्ञापन के, खूब जोरों पर है। हर सड़क के किनारे महिलायें सवेरे सवेरे उपले पाथते दिख जाती हैं। सवेरे एक दो घण्टे का यह नित्य अनुष्ठान है उनका – बहुत कुछ वैसे ही जैसे मेरे बचपन में सवेरे महिलायें अपने घर का दुआर लीपती और जांत पर दिन भर की जरूरत का आटा पीसती थीं। उपले पाथते हुये गीत गाने की परम्परा नहीं है वर्ना इसका एक सांस्कृतिक महत्व भी हो जाता। यह हाईवे के किनारे बना फुटपाथ उपले सुखाने के काम आता है।

यह हाईवे के किनारे बना फुटपाथ उपले सुखाने के काम आता है।

चाहे सड़क हो या रेल, सार्वजनिक स्थान लोगों के निजी उपभोग के लिये नामित है। रेलवे स्टेशन पर यह नया लम्बा साढ़े छ सौ मीटर का प्लेटफार्म बना है। रेलवे के हिसाब से यह विकास का हिस्सा है; मेरे ख्याल से फिजूलखर्ची। उसका उपयोग बगल के गांव वाले (जो शायद रेलवे की भी जमीन दाब कर अपने घर बनाये हैं) नये बने प्लेटफार्म का उपयोग अपनी फसल के खलिहान के रूप में करते हैं।

गांव वाले नये बने प्लेटफार्म का उपयोग अपनी फसल के खलिहान के रूप में करते हैं।

गंगा सिमट गयी हैं। अभी और सिमटेंगी। अप्रेल में जब पहाड़ों पर बर्फ पिघलेगी, तब गंगा में पानी बढ़ेगा। आज देखा, अब तो घेंटी (साइबेरियाई पक्षी) भी नहीं दिखी। शायद वापस लौट गये हैं। एक आदमी कोलाहलपुर के घाट पर स्नान के लिये जा रहा था। फोन पर किसी को तेज आवाज में निर्देश दे रहा था – “कोठरी में सिलिण्डर रखा है। उसे फलाने की दुकान पर रखवा देना। पैसा आ कर दूंगा। कहीं भागा थोड़े जा रहा है पैसा। बता देना कि गैस वाली गाड़ी आयेगी तो भरा सिलिण्डर उतरवा ले। … अरे भाई, कह रहा हूं न कि पैसा आ कर दे दूंगा।” बंदा गंगा स्नान को जा रहा है, अपने मन के झंझट साथ ले कर जा रहा है। डुबकी लगायेगा पर झंझट वहां भी त्याग कर नहीं आयेगा। सिलिण्डर भरवाने की चिंता चिपकी रहेगी उसके साथ!

बंदा गंगा स्नान को जा रहा है, अपने मन के झंझट साथ ले कर जा रहा है। डुबकी लगायेगा पर झंझट वहां भी त्याग कर नहीं आयेगा।

सर्दी कम हो गयी है। दिन में तो गांव में भी बाहर निकलने में कष्ट होने लगा है। पर सवेरे जब गंगा तट पर जाने को निकला तो हल्की ठण्ड थी। एक जगह तो तीन आदमी पूर्व की ओर मुंह किये सूरज की ऊष्णता जब्ज करते पाये। मेरा भी मन हुआ कि घर से एक मोटा कमीज या आधा स्वेटर पहन कर निकलता तो बेहतर होता। पर छोटे मकान या मड़ई वाले लोग अब खुले में सोने लगे हैं। यहां मुझे पेड़ के नीचे एक खाट दिखी। ऊपर पेड़ की टहनी से समेटी हुई मच्छरदानी लटकी हुई थी। सर्दी कम हुई तो मच्छर बढ़ गये हैं।

यहां मुझे पेड़ के नीचे एक खाट दिखी। ऊपर पेड़ की टहनी से समेटी हुई मच्छरदानी लटकी हुई थी।

उड़द और सरसों कट कर खलिहान में आ चुकी है। अब अरहर कटाई प्रारम्भ हो गयी है। आसपास दिखता है कि फसल अच्छी है। अरहर की कटाई करती महिलायें भी कोई गीत नहीं गातीं। उन्हें आपस में बातचीत करते, बड़बड़ाते या परनिंदा करते ही पाया।

अरहर की कटाई करती महिलायें भी कोई गीत नहीं गातीं। उन्हें आपस में बातचीत करते, बड़बड़ाते या परनिंदा करते ही पाया।
और अंत में –

आज का सबसे अच्छा सीन यह था। डईनियाँ में यह बछड़ा उछल उछल कर अपनी मां के थन से दूध (जो भी ग्वाले द्वारा दुहने से बचा हो) पी रहा था।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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