अमूल कोऑपरेटिव का कलेक्शन सेण्टर

कल गडौली गांव से साथी (साइकिल) के साथ गुजरते हुये अमूल का मिल्क कलेक्शन सेण्टर देखा। मुझे बताया गया कि इस सेण्टर के अध्यक्ष देवकली गांव के कोई सज्जन हैं। कलेक्शन करने वाले बरैनी से आते हैं। सवेरे साढ़े पांच बजे सेण्टर खुलता है। आसपास के गांव वाले यहां आ कर अपना दूध देते हैं। फैट और एसएनएफ कण्टेण्ट को नाप कर उसके अनुसार रेट लगा कर दूध उनसे लिया जाता है।

एक किशोर, जो मोटर साइकिल से पास के करहर गांव से दूध ले कर आये थे, उन्होने अपनी स्लिप दिखाई। सेण्टर ने उनसे 29.06रुपये लीटर के भाव से लिया था दूध।

उस समय करीब दस लोग लाइन में लगे थे दूध सेण्टर में देने के लिये। एक सज्जन ने बताया कि कभी तो लाइन पचास लोगों की भी होती है। साढ़े पांच बजे सेण्टर खुलने पर इक्का-दुक्का लोग आते हैं। आधे घण्टे में भीड़ बढ़ जाती है। जब मैं वहां था तो पौने सात बज रहे थे। ज्यादातर लोग अपना दूध दे कर जा चुके थे।

मिर्जापुर के इस इलाके और भदोही में खेती की जोत बहुत कम है। लोग मार्जिनल काश्तकार है। इस दशा में दूध का काम बेहतर विकल्प है। लोगों को गेंहू, चावल की मोनो कल्चर से इतर सब्जी लगानी चाहियें, दूध उत्पादन पर जोर देना चाहिये। उसके लिये जरूरी है मार्केट। सब्जी की कछवांं मण्डी पास में है, पर हर किसान का वहां सब्जी ले कर बेचने जाना सम्भव नहीं होता। वहां आढतिये अपनी चलाते हैं। इसलिये अमूल के इस सेण्टर की तरह सब्जी के भी कलेक्शन सेण्टर होने चाहियें। दूसरे, इस तरह की मिल्क कोऑपरेटिव्स का विस्तार होना चाहिये। हर ब्लॉक में पांच ऐसे कोऑपरेटिव बनने चाहियें।

कुछ समय पहले शैलेंद्र दुबे, मेरे साले साहब, ने अपनी डेयरी खोली थी। उनकी सोच यह भी थी कि अमूल का एक कलेक्शन सेण्टर उनके गांव में खुले। पर शायद उनपर भाजपा की नेताई के काम का बोझ इतना था कि वे अपनी डेयरी पर ध्यान नहीं दे पाये। और कलेक्शन सेण्टर खुलवाने की उनकी रुचि भी दब गयी। अन्यथा बहुत बढ़िया काम होता मेरे आसपास के गांवों के लिये।

अब भी, जो शूरवीर, प्रधानी, पंचायती के लिये जूझ रहे हैं उन्हे यह सेण्टर खुलवाना अपने मेनीफेस्टो में डालना चाहिये।

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गडौली के कलेक्शन सेण्टर पर लाइन में लगे ग्रांव वाले

मैं गांव में अपने साले साहब – मन्ना दुबे जी से दूध लेता हूं। चालीस रुपया किलो। गाय का दूध। सोचता था कि मुझे शुद्ध दूध सस्ते भाव से मिलता है। वह लेने जाने का उपक्रम मुझे रोज करना होता है। कल गडौली के इस अमूल कलेक्शन सेण्टर की रसीद देख कर यह स्पष्ट हुआ कि मुझे शुद्ध दूध तो मिलता है पर पारिवारिक सम्बंधों के कारण सस्ते भाव में मिलता है, वह सही नहीं है। गडौली के आसपास के गांव के लोग अपने अपने साधन से सेण्टर पर आ कर लाइन लगा कर, फैट कण्टेण्ट नपवा कर, अपना दूध देने का उपक्रम करते हैं। यहां मैं स्वयम जाता हूं दूध लाने के लिये वह भी 11 रुपये अतिरिक्त दे कर।

कोऑपरेटिव सेण्टर के विकल्प बाल्टा वाले भी 28-30रुपये से ज्यादा नहीं देते होंगे दूध कलेक्शन का। और उन्हें तो घर घर जा कर लेना होता है। शायद कम ही देते हों। कुल मिला कर अमूल कलेक्शन सेण्टर गांव में दूध के दाम का मानक तय करने वाला होना चाहिये।

जब मैंने गांव में रिहायश बनाई थी, तो सम्बंधों के आधार पर दूध मुझे 22 रुपये लीटर दिया देवेंद्र भाई ने। उसके बाद पांच साल में वह 28, 34, 35 होते हुये चालीस हो गया। यह मुद्रास्फीति – पांच साल में 82 प्रतिशत – अप्रत्याशित है। यह गांव में सम्बंधों के अवमूल्यन का इतिहास है। यह यह भी बताता है कि अंतत: मार्केट की ताकत ही रूल करती है। किसान आंदोलन वालों को आढ़तियों से अपने सम्बंधों की बजाय मार्केट की ताकत को समझना चाहिये। :-D

लगा कि मुझे दूध की जरूरत के लिये गांव और सम्बंधों के आधार पर नहीं, पूर्णत: व्यवसायिक और आर्थिक आधार पर सोचना चाहिये। गांव का सबर्बनीकरण उसी आधार पर होगा।

एक घण्टे की साथी के साथ सैर में मानसिक हलचल इस दिशा में चली! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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