मैं सूर्या ट्रॉमा सेण्टर गया था कोविड-19 का टीका लगवाने। वहां उनका स्मरण हो आया तो उन्हें फोन किया। सूर्यमणि जी ने बताया कि महीना से ज्यादा हुआ, वे कमर के दर्द से बेड-रेस्ट पर हैं। परेशानी ज्यादा ही है। मैं सोचता ही रह गया कि उनसे मिल कर उनका हाल चाल पूछा जाये। इसमें एक सप्ताह गुजर गया।

एक सप्ताह बाद उनसे मिलने गया तो उन्होने बताया कि अब तबियत कुछ बेहतर है। वे कमर में बेल्ट बांध कर अपने दफ्तर में बैठे थे। क्लीन शेव, एक जाकिट पहने, कमरे का तापक्रम 29 डिग्री सेट रखे वे काम में लगे हुये थे। मुझे अपेक्षा थी कि वे बिस्तर पर लेटे होंगे। उनका शयन कक्ष उनके ऑफिस से जुड़ा हुआ है। मन में सोचा था कि उसी रीयर-चेम्बर में उनसे मिलना होगा, पर दफ्तर में मिलना सुखद आश्चर्य था। स्मार्ट लग रहे थे वे! बीमार की तरह झूल नहीं रहे थे।
पर शायद उन्होने डाक्टर की सलाह पूरी तरह नहीं मानी। सम्भवत: उनको उनका काम दफ्तर तक खींच लाया। वैसे भी, उनके अस्पताल में अशोक तिवारी जी ने मुझे कहा था – “हां, उनके कमर में तकलीफ है। डाक्टर ने उन्हे बेड रेस्ट करने को कहा है। पर, आप उनसे पूछिये तो कि डाक्टर की बात मानते हैं क्या? जब हर आधे घण्टे में उठ कर काम देखने में लग जायेंगे तो क्या ठीक होगा दर्द? जो महीना लगता, वह दो महीना लगेगा ठीक होने में।”
फोन पर ही सूर्यमणि जी ने कहा था कि बहुत अकेलापन महसूस होता है। यह भी मुझे समझ नहीं आता था। अरबपति व्यक्ति, जो अपने एम्पायर के शीर्ष पर हो, जिसे कर्मचारी, व्यवसाय, समाज और कुटुम्ब के लोग घेरे रहते हों, जिसके स्वास्थ्य के लिये पूरा अस्पताल हो; वह अकेलापन कैसे महसूस कर सकता है?
मैं जब अपने कार्य के शीर्ष पर था तो मुझे अकेलापन नहीं, काम का बोझ और अपनी पद-प्रतिष्ठा की निरंतरता बनाये रहने का भय महसूस होते थे। चूंकि मेरे समकक्ष अन्य विभागाध्यक्ष गण इसी प्रकार की दशा में थे, उनसे शेयर भी होता था। हम में से कुछ उस पद प्रतिष्ठा, उस काम के बोझ से वैराज्ञ की बात जरूर करते थे, पर किसी ने अपनी प्रभुता छोड़ी नहीं – जब तक कि रेल सेवा से रिटायर नहीं हुये। 🙂

इसलिये मैं सूर्यमणि जी की कथन की गम्भीरता का आकलन नहीं कर पा रहा था। शीर्ष का अपना एकांत होता है। शिखर अकेला होता है। यह पढ़ा था, पर अनुभूति नहीं की थी उसकी। उसका कुछ अहसास उनसे मिलने पर हुआ।
अपने विषय में बताने लगे सूर्यमणि जी। किस प्रकार से पिताजी के निधन के बाद स्कूल की मास्टरी की, फिर व्यवसाय सीखा। इस सब के बारे में उनके विषय में पुरानी पोस्ट में जिक्र है।
उनकेे व्यवसाय में मामा लोग साथ लगे। व्यवसाय में सफलता के साथ साथ उन्होने अपने तीन मामा और उनके बारह लड़कों के भरे पूरे कुटुम्ब की देखभाल की। उस दौर में उन्होने मामा लोगों को कम्पनी में हिस्सेदारी दी। अपने भाई की समृद्धि और उनके रुग्ण होने पर इलाज में सामान्य से आगे जा कर यत्न किये। उनका निधन त्रासद था। फिर, एक मुकाम पर यह महसूस हुआ कि लोगों को भले ही साथ ले कर चले हों, वे सम्बंधी-साथी होने की बजाय आश्रित ज्यादा होने लगे थे। उन्हे अलग करने की प्रक्रिया कष्टदायक रही। पैसा लगा ही, मन भी टूटा।
मन टूटने के विषय में सूर्यमणि जी के मुंह से निकल गया – “यह सब देख लगता है कहीं का नहीं रहा मैं।” फिर कहा – “पर यह काम छोड़ा भी नहीं जा सकता। इतने सारे कर्मचारी निर्भर हैं। उनकी महीने की सैलरी ही बड़ी रकम होती है। काम तो करना ही होगा। इसलिये यह बेल्ट बांध कर काम कर रहा हूं।”
“मैंने काम के फेर में अपनी पत्नी जी को उतना ध्यान से नहीं सुना, जितना सुनना चाहिये था। पत्नी ‘मेहना (ताना) भी मारे’ तब भी सुनना चाहिये। और मेरी पत्नीजी तो घर परिवार के लिये बहुत समर्पित रही हैं। उनकी सुनता तो शायद इस दारुण प्रक्रिया से न गुजरना पड़ता…समय पर सुनना चाहिये था।”

“आज देर तक नींद नहीं आयी रात में। सवेरे चार बजे रजनीश बाबा को फोन मिलाया। पूछा – क्या जीवन बेकार चला गया। ईश्वर कितनी परीक्षा लेते हैं?! पर मेरी परीक्षा तो राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा की तुलना में तो कुछ भी नहीं है।”
रजनीश जी धारकुण्डी (जिला सतना, मध्यप्रदेश) आश्रम में हैं। उनका फोन नम्बर मुझे दिया कि उनसे बात कर मुझे भी अच्छा लगेगा। स्वामी जी से अभी बात नहीं की है। वे अड़गड़ानंद के गुरु स्वामी परमानंद परमहंस जी की सौ साल पहले लिखी पुस्तक “ज्ञानवैराग्यप्रकाश (भाषा वेदांत)” का पुन: प्रकाशन करने में लगे हैं। यह पुस्तक पढ़ने की प्रक्रिया में जो जिज्ञासायें होंगी, उनके विषय में रजनीश बाबा से बात करने का उपक्रम करूंगा। सूर्यमणि जी ने उस पुस्तक की फोटोकॉपी मुझे पढ़ने को दी है। पुस्तक की हिंदी भारतेंदु युगीन है। पर कण्टेण्ट तो वेदांत की किसी पुस्तक की तरह सदा-सर्वदा नवीन है।
मैंने सूर्यमणि जी से कहा – “आप यह अकेलेपन की बात करते हैं। आपके पास लोगों का मजमा लगा रहता है। दिन भर लोग आपसे मिलने के इच्छुक रहते हैं।… इन सब में पांच सात मित्र तो होंगे, जिनसे शेयर किया जा सकता हो?” उन्होने कुछ उत्तर दिया, पर मैं जो समझा, उसके अनुसार शायद पत्नी ही वह व्यक्ति हैं जिनसे शेयर किया जा सकता है, पर पत्नीजी यह तो कहेंगी ही कि “उस समय तो आप अपनी वाहावाही में रहे!”

सूर्यमणि जी अपनी बात कहते हुये आध्यात्म की ओर मुड़े। “कोई मित्र नहीं, असली मित्र तो ईश्वर हैं। पर लोगों में अध्ययन, मनन की प्रवृत्ति कम होती गयी है। लोग मन निग्रह पर ध्यान नहीं देते। ईश्वर का स्कूल खाली हो गया है। माया के फेर में हैं लोग। मायारूपी सर्प ने डंस लिया है।”
वे मन के निग्रह, ध्यान, श्वांस-प्रतिश्वांस को ऑब्जर्व करने की बात कहने लगे। उन्हे सम्भवत: अपने उमड़ते घुमड़ते विचारों – जिनमें निराशा, कर्म करने की प्रबल इच्छाशक्ति, परिस्थितियों से जूझने का संकल्प, और अपने खुद के मन निग्रह की जद्दोजहद का केलिडोस्कोप था; को व्यक्त करना था और मैं शायद (उनके हिसाब से) उसके लिये उपयुक्त श्रोता था। बड़ी साफगोई से अपनी व्यथा, अपना एकाकीपन, अपनी आध्यात्मिक जद्दोजहद मुझसे व्यक्त की। वे बोलते गये। प्रवाह से यह स्पष्ट हुआ कि वे कुछ होल्ड-बैक नहीं कर रहे। I felt honored. आजकल मुझे ऑनर्ड की फीलिंग मिलना भी लगभग नहीं के बराबर हो गया है। 😀
मैं अभी भी स्पष्ट नहीं हूं कि वे अकेलापन (Loneliness) व्यक्त कर रहे थे या अपना एकांत (Solitude)। आध्यात्म, ध्यान और जीवन के उच्च मूल्यों की बात व्यक्ति तब सोच पाता है जब मन स्थिर हो और व्यक्ति एकांत अनुभव कर रहा हो। वह एकांत (सॉलीट्यूड) – अगर आपका अभ्यास हो – भीड़ में भी महसूस किया जा सकता है। रमानाथ अवस्थी की कविता है – भीड़ में भी रहता हूं, वीराने के सहारे, जैसे कोई मंदिर किसी गांव के किनारे! … यह भी सम्भव है कि एकाकीपन अंतत: व्यक्ति को सॉलीट्यूड की ओर ले जाता हो। और उसमें धारकुण्डी के बाबाजी, स्वामी अड़गड़ानंद आदि निमित्त बनते हों। पर यह सब लिखने के लिये मेरा कोई विशद अध्ययन या अनुभव नहीं है। शायद सूर्यमणि जी के पर्सोना को और गहराई से जानना होगा। स्कूल की मास्टरी से आज तक वे घोर कर्म (या बकौल उनके कुकुर छिनौती) के साथ साथ आत्मविश्लेषण और स्वाध्याय में कितना जुटे रहे, उससे ही सूत्र मिलेंगे।
वे न केवल सफल व्यक्ति हैं, वरन सरलता और विनम्रता में सीढ़ी की बहुत ऊंची पायदान पर हैं। बहुत कुछ सीख सकता हूं मैं उनसे।

लगभग एक घण्टा मैं और मेरी पत्नीजी उनके साथ रहे उनके दफ्तर में। इस बीच उनके भृत्य राजेश पाण्डे और उनके भतीजे प्रशांत उनके पास आये। राजेश एक बनियान नुमा टीशर्ट में थे। चाय-नाश्ता कराने पर मैं उनका चित्र लेने लगा तो राजेश को डपट कर सूर्यमणि जी ने साफ कमीज पहन कर आने को कहा। पतले दुबले राजेश का चित्र तो मैंने कमीज में ही खींचा। प्रशांत जी को तो मैं पहले से जानता हूं। उनके बारे में सूर्यमणि जी की परिचयात्मक टिप्पणी थी – “ये मेरे अर्जुन हैं!”

उनके चेम्बर में मेरी पत्नीजी और मैं उनसे डेढ़ साल बाद मिले थे। घण्टे भर उनके साथ बैठने के बाद उनसे विदा ली तो वे खड़े हो कर बोले – “आगे अब डेढ़ साल नहीं, दो तीन महीने के अंतराल में मुलाकात होनी चाहिये।” अपने कमर में बैल्ट बंधे होने के कारण उनके चलने फिरने में दिक्कत होगी, इसलिए उन्होने प्रशांत जी को कहा कि वे हमें सी-ऑफ कर आयें।
पुराने कारखाने के उनके दफ्तर के बाहर कार्पेट लाने, उतारने, बिछाने, निरीक्षण करने और समेटने की गतिविधि में 10-15 लोग लगे थे। पूरे कारखाने में बहुत से लोग होंगे। उनके अस्पताल (जो डेढ़ किलोमीटर पर है) में भी बहुत से लोग हैं और विविध गतिविधियां। इस सब के बीच इनका मालिक कहता है कि बहुत अकेलापन लगता है। और फिर वह काम में तल्लीन हो जाता है। कौन मोटिव पावर है जिसके आधार पर यह हो रहा है?!
यक्ष प्रश्न है यह। उत्तर तलाशो जीडी इसका। न मिले तो दो-तीन महीने बाद अगली मुलाकात का इंतजार करो!
Beautiful expression. Nicely penned. It’s a great blog. Thank you so much for sharing your thoughts and also for reading my blog:” Kalpatarurudra’.
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🙏
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सबसे पहले मैं तिवारी जी को स्वास्थ्य लाभ की शुभकामनाये दूंगा कि वो शीघ्रातिशीघ्र स्वस्थ हों।
इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने केवल मामा लोगो के लिए ही नहीं बल्कि इस पुरे छेत्र को सहयोग करके आगे ले जाने में अहम भूमिका निभाई है। वे इस छेत्र के लोगो के लिए विकास के प्रति एक प्रेरणाश्रोत रहे हैं, और कितनों के घर में चूल्हा, इनके अनवरत परिश्रम की वजह से जलता है।यह प्रायः देखा गया है कि जब आप शिखर पर हो तो उसको बरकरार रखने के लिए अधिक श्रम की आवस्यकता होती हैँ।अकेलापन – आपके आसपास कितने भी लोग हो लेकिन आपकी बात और आपकी सोच से मिलता हुआ प्रत्युत्तर न मिले तो वह ना के बराबर होता हैँ। वैसे अवस्थी जी की कविता बहुत बढ़िया है।
“माया के फेर में हैं लोग। मायारूपी सर्प ने डंस लिया है” – बिलकुल सही बात है तुलसी बाबा ने भी लिखा था “जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई”
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बहुत सटीक टिप्पणी, उपाध्याय जी!
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संसार की माया में कर्मशील व्यक्ति जब इस मोह बंधन से मुक्त होने की छटपटाहट अनुभव करने लगता है और अध्यात्म के मार्ग से ईश्वर से साक्षात्कार करने में में प्रेरित होने लगता है तो अकेलेपन का अहसास होने लगता है। इस मायावी दुनिया में इंसान अकेला ही आया था और अकेला ही जायेगा। न कुछ लेकर आया था और न कुछ लेकर जायेगा। खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही लौटकर जायेगा।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे पास आने के लिए सर्वस्व त्याग कर, माया, मोह, ज्ञान सभी छोड़ कर अकेले ही आना होता है मेरी राह के पथिक को।
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बहुत सही कहा आपने! धन्यवाद!
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बहुत बढ़िया और रुचिकर लिखते है सर…. पढ़ने से अपने को रोक नहीं पाता हूँ.
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धन्यवाद बरनवाल जी!
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जीवन के सही प्रश्नों को स्पर्श करता हुआ first persion account जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त उपयोगी है।🙏
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धन्यवाद जी! आशा है आप सानंद होंगे।
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