फिल्म ज्ञान पर क्रैश कोर्स की जरूरत


ब्लॉगरी लगता हैं चल नहीं पायेगी अगर मैं जल्दी से हिंदी फिल्म के बेसिक्स नहीं सीख लेता. और बेसिक्स सिखाने के लिए या तो हिंदी फिल्म्स फार डमीज जैसी किताब हो या फिर क्रैश कोर्स । सिनेमा प्रेमी माफ़ करें – मुझे तो लगता हैं की हिंदी फ़िल्में बनी ही डमीज के लिए हैं, सो हिंदी फिल्म्स फार डमीज जैसी किताब बेकार हैं। लिहाजा बचता हैं क्रैश कोर्स – जो आलोक पुराणिक के पर्व्यू में आता हैं।

बहुत ज़माने से मैंने अपने को हिंदी फिल्मों के छद्म संसार से काटे रखा। पहले जब पढता था (अब तो नौकरी की ऐसी शुद्ध कि पढ़ना ही छूट गया!) तब हिंदी फ़िल्में देखता था। उलूल-जुलूल और ऐसी कि तीन घंटे दिमाग बंद रखना अनिवार्य हो। तय किया की फिल्मों की ऐसी की तैसी। नहीं देखेंगे। अपने को फिल्मों से पूरी निर्दयता से काटा।**

सबसे काटा अपने आप को – अखबार में उनपर लेखन से भी। वैसे भी अखबार में फिल्मों के बारे में जो छपता हैं; वह किस हीरोइन की किस हीरो से अंतरंगता हैं यही भर बताता है; इससे ज्यादा नहीं. और कुछ होता भी हैं तो उसे भूसे के ढ़ेर में से सूई निकलने जैसा यत्न करना पडता हैं।

चलते-चलते : कल सुरेश चिपलूणकर की एक पोस्ट ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि हिन्दी फिल्म परिदृष्य थोड़े से हेर-फेर के साथ वैसा ही है जैसा पहले था. लिहाजा मैने बहुत मिस नहीं किया है.

अब ब्लॉग लेखन के कारण सिचयुयेशन कुछ बदल गयी हैं। मैंने काकेश का कलम चूमने की बात की तो उन्होने शिल्पा की। वह तो भला हो कि जेड गूडी वाले प्रकरण के कारण मैं इस नाम से परिचित था। दो-तीन लोगों ने मुन्नाभाई की बात की तो पता चला की ये सज्जन सुनील दत्त के बेटे हैं, एक हथियार के मामले में सजा का इंतजार कर रहे हैं और गाँधी जी को इन्होने री-इनवेंट किया हैं। कुल मिलाकर लगता हैं कि आम जीवन पर लेखन भी फिल्म के दृष्टांतों के माध्यम से इतना हो रहा है कि उन्हे समझने को फिल्मों के बेसिक्स जानने ही पड़ेंगे।

क्या कोई ऑन लाइन क्रैश कोर्स हैं?

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**जीवन से कुछ विषयों को काटने की बात की है तो यह स्पष्ट कर दूं कि और भी कई विषय हैं जो मैने जीवन के नेपथ्य में डाल दिये हैं – गरीबी और लल्लूपने (मीकनेस) का महिमा मण्डन मुझे जबरी फटेहाली ओढ़ने जैसा लगता है. और ये जितने उनके हमदर्द हैं, वे अपने लिये पचमढ़ी में कॉटेज/बंगला या तो रखते हैं – या जुगाड़ने की तमन्ना रखते हैं. अपने को प्रोमोट करने के सभी हथकण्डे जानते हैं – माइक और कैमरा सामने आते ही धाराप्रवाह बोलते हैं. इनके पास समाधान नही हैं. बापू गरीबी के पक्ष में कहते थे तो श्रद्धा होती थी. अब वाले तो दिखावा हैं.

साम्यवाद में जब चीन ने अपने रंग बदल लिये, बर्लिन की दीवार इतिहास हो गयी और रूस का दूसरा मोर्चा बिला गया, तब अपने नक्सली तो केवल नक्शेबाज लगते हैं. लिहाजा साम्यवाद को दरकिनार कर दिया है.

राजनीति के कारण आलम यह है कि बच्चे स्कूल में बाबर – हुमायूं पढ़े जा रहे हैं (कर्टसी धर्मनिरपेक्षता) या फिर शिवाजी – राणाप्रताप (कर्टसी आर.एस.एस. ) . जबकि पढ़ना चाहिये नारायणमूर्ति/कलाम/नर्लीकर को. सो हिस्ट्री को भी हिस्टीरिया की तरह अलग कर दिया है.

पर इन विषयों पर क्रैश कोर्स की जरूरत नहीं है. उनमें हर साल नयी 18 साल की हीरोइन, पहले वाली को धकिया कर नहीं आ जाती!

ब्लॉगर मीट – यह कौन सा मीट है भाई!


“झुमरी तलैया में ब्लॉगर मीट” जैसे शीर्षक से पोस्ट छपती है और घंटे भर में उसकी टीआरपी रेटिंग स्काईरॉकेट कर जाती है. कौन सा मीट हैं यह भाई जिसके लिये लाइन लग जाती है!

ऐसा नहीं है कि मैं सामाजिकता नहीं समझता. स्वभाव से मैं अत्यंत संकोची और इंट्रोवर्ट हूं. पर लोगों के मिलने और उनके विचार विमर्श की अहमियत को बखूबी जानता हूं. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि यह मीट ज्यादा ही पक रहा है? लोग ज्यादा ही मिलनसार हो रहे हैं; वह भी गर्मी के मौसम में जब परिन्दा भी छाया में बैठना पसन्द करे बनिस्पत 25-50 मील चल कर ऐसे सम्मेलन में जाये.

अंतरमुखी व्यक्तित्व का तो यह आलम है कि मैं अपनी शादी में भी इसलिये गया था कि वहां प्रॉक्सी नहीं चलती. अन्यथा जितने निमंत्रण मिलते हैं; कोशिश यही रहती है कि अपने टोकन उपहार का लिफाफा कोई सज्जन लेकर जाने को तैयार हो जायें. मुझे मालुम है कि समारोह में अनेक लोग आयेंगे और हम जैसे कोने में गुम-सुम खड़े रहने वाले को कोई मिस नहीं करेगा.

भीड़ में भी रहता हूं वीराने के सहारे

जैसे कोई मन्दिर किसी गांव के किनारे

तन की थकान तो उतार ली है पथ ने

जाने कौन मन की थकान को उतारे

जैसा भी हूं वैसा ही हूं समय के सामने

चाहे मुझे नाश करे, चाहे ये संवारे

– रमानाथ अवस्थी

ब्लॉगर मीट के बारे में मेरी एक जिज्ञासा है – इंटरनेट पर आदमी की जो इमेज बनती है, वह प्रत्यक्ष मिलने पर अगर अलग होती होगी तो क्या प्रतिक्रिया होती होगी मन में? एक ब्लॉग पर ब्लॉगर मीट की फोटो देख कर एक सज्जन के बारे में लिखा है – वे ब्लॉग पर गरीबों के पक्षधर हैं पर मिलन की फोटो में “लाजपत नगर के किसी ताज़ाताज़ा सफल होतेव्यापारी की छविज्यादा पेश करते दीख रहे थे!”


अव्वल तो लोग अपना प्रोफाइल नेट पर कुछ डिसीविंग ही रखते हैं. हर आदमी/औरत वह होते नहीं जो प्रोजेक्ट करते हैं. हर आदमी अपना नाम भी चाहता हैं और बेनाम धुरविरोधी भी रहना चाहता है. हर आदमी शार्प/सफल/विटी/सम्वेदनशील/जिम्मेदार दीखना चाहता है. पर वह जो होता है, वह होता है.

क्या ब्लॉगर मिलन में लोग वह दिखते हैं जो होते हैं? वहां प्रत्यक्ष मिलने में जो प्रोफाइल पेश करते हैं, उसमें कोई छिपाव नहीं होता? यह प्रश्न एक प्रसन्नमन आत्मतुष्ट ब्लॉगर-मिलन में जाने वाले ब्लॉगर को उलूल-जुलूल लग सकता है. लोगों से मिलने बतियाने; गप सड़ाका करने; अपने फोन नम्बर एक्स्चेंज करने और चाय-पान-भोजन के बाद वापस आने में क्या गलत है? पर प्रश्न है तो क्या किया जाये?

एक सार्थक चीज वह हो सकती है कि लोग ब्लॉग पर अपने प्रोफाइल में आत्मकथ्य के रूप में हाइपरबोल में लपेटलपेट कर लिखें. अपने बारे में तथ्यात्मक विवरण दें. अपने को तो महिमामण्डित करें और डीरेट. इसपर हिन्दी ब्लॉगर विचार कर सकते हैं. जब यहां कुनबा ही छोटा सा है तो डिसीविंग प्रोफाइल का क्या तुक?

मेरे जैसा व्यक्ति भीड़ में अकेला होता है और ब्लॉग पर लिखता इसलिये है कि अपने को जीवित/वाइब्रेण्ट होने का दस्तावेजी सबूत भर दे सके. उसको “झुमरी तलैया में ब्लॉगर मीट” के पोस्ट की टीआरपी रेटिंग स्काईरॉकेट करना एक अजीब फिनामिना लगता है.

यो यत श्रद्ध: स एव स: – जिसकी जैसी प्रवृत्ति है वह वैसा ही है. और वह लेखन से भी पता चलता है और प्रत्यक्ष भी.

सुबोध पाण्डे की याद


सुबोध पाण्डे मेरे सीनियर थे रेल सेवा में. जब मैने रेलवे ज्वाइन की, तब वे पश्चिम रेलवे में मुम्बई मण्डल के वरिष्ठ परिचालन अधीक्षक थे. बाद में विभिन्न पदों पर वे मेरे अधिकारी रहे.

मैं यहां उनके सनिध्य को बतौर रेल अधिकारी याद नहीं कर रहा. रिटायरमेण्ट के बाद वे अभी कहां पर हैं, यह भी मुझे पता नहीं. उन्हें एक अच्छे व्यक्ति के रूप में स्मरण कर रहा हूं. उनसे मै रेलवे के इतर अनेक प्रकार के मामलों पर बात कर लेता था. वे एक प्रतिभावान परिवार से थे. उनके बड़े भाई श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय भारत के कैबिनेट सेक्रेटरी रह चुके थे जो कालांतर में बिहार और अरुणांचल के राज्यपाल रहे. अपने बड़े भाई की तरह सुबोध भी विस्तृत ज्ञान के व्यक्ति थे. मैं जो भी पुस्तक उनसे चर्चा के लिये उठाता था वह उन्होने या तो पहले ही पढ़ी होती थी या उसकी विषयवस्तु से वे अपने अध्यन की गहराई के माध्यम से काफी परिचित होते थे. मुझे एक बार लगा कि मैं शायद इन्टरनेट के बारे में उनसे बेहतर परिचय रखता हूं और उसपर अगर बात करूं तो मैं हमेशा की तरह उनसे जानकारी लेने की बजाय इसबार उन्हे कुछ बता सकूंगा. मेरा सोचना नितांत गलत निकला. बात प्रारम्भ की ही थी कि उन्होनें मुझे उनके प्रिय विषय इतिहास पर दर्जनों साइट बता ड़ालीं इस आग्रह के साथ कि मैं उन्हे अवश्य देखूं. मैं अपने ही लासे में फंस गया!

Subodh Pande is a person with knowledge spread in varied fields. History was his pet. But you could discuss Big Bang theory with equal ease with him. He used to ask me to send dry Neem leaves to him to Bombay because he had vast collection of books. To save books from worms in humid Bombay climate he wanted to make layers of Neem leaves before placing them. He had sound knowledge of Astrology too, though he never flashed his knowledge.

It is not easy to find such people in daily life so near and so interactive with you!

एक समय सुबोध मेरे मण्डल रेल प्रबन्धक थे कोटा में. मैं वरिष्ठ मण्डल परिचालन प्रबन्धक था. रेलगाड़ी परिचालन की व्यस्तता से 11 बजे तक निवृत्त होता था. सवा इग्यारह बजे उनका फोन आता था चले आओ. मुझे उनके ज्ञान वर्धक प्रवचन की तलब होती थी और उन्हे शायद एक ट्यूंड-फ्रीक्वेंसी वाले शिष्य की! मै उनके पास जाते समय उनकी दो-तीन नोटिंग्स वाली फाइलें साथ ले जाता था. उनकी हस्तलिपि इतनी खराब थी कि उन्ही से पूछना पड़ता था कि उन्होने क्या लिखा है. कई बार तो अपनी हैण्डराइटिंग से वे स्वयम जूझते थे और हार कर नयी नोटिंग लिखते थे. उनके साथ मैने कोटा के अनेक म्यूजियम, पुरानी पुस्तकों के संग्रह, बून्दी की हवेलियां आदि देखे जो शायद अकेले मैं कभी न देख पाता. अंग्रेजों की कब्रों पर उन्होने बड़ा अध्ययन किया था. उनके इंक्रिप्शंस से वे यह जानने का यत्न करते थे कि विभिन्न समय पर किस-किस प्रकार के अंग्रेज भारत में थे.

गजब के जुनून वाले आदमी थे सुबोध. मैं सोचता हूं कि अब भी उनमें वही इंक्विजिटिव मनुष्य जिन्दा होगा. अभी वे 65 वर्ष के होंगे.

इतना विशद अध्ययन, इतने सरल और जीवन में उत्साह से भरे सुबोध पाण्डे वे कई अर्थों में मेरे रोल माडल हैं.

नेगोशियेशन तकनीक : धीरे बोलो, हिन्दी बोलो


मैं अपनी बताता हूं. जब मैं आवेश में होता हूं भाषण देने या ऐसी-तैसी करने के मूड़ में होता हूं तो अंग्रेजी निकलती है मुंह से. धाराप्रवाह. और जब धीरे-धीरे बोलना होता है, शब्दों को तोल कर बोलना होता है तब हिन्दी के सटीक शब्द पॉपकॉर्न की तरह एक-एक कर फूट कर सामने आते हैं.

मेरे एक यूनियन नेता ने इस ऑब्जर्वेशन का अच्छा फायदा उठाया था नेगोशियेशन में. रेलवे में पर्मानेण्ट नेगोशियेशन मशीनरी (पी.एन.एम.) की बैठक यूनियन से दो माह में होती है. मुद्दों पर आवेश आना बहुधा हो जाता है. यूनियन नेता अगर कमजोर विकेट पर हों तो आपको आवेशित करने का यत्न भी करते हैं आवेश में आप कुछ अंट-शंट कहें और वे उसी का हो हल्ला कर बच जायें. एक कमजोर मुद्देपर उन्होने ऐसा ही किया। मुझे प्रोवोक किया। आवेश में मैंने धुंआधार भाषण झाड़ा – अंग्रेजी में. पिन-ड्रॉप साइलेंस में वे सारे सुनते रहे. मैने कोई स्लिप भी नहीं की, जिसका वे फायदा ले सकें. भाषण खतम कर विजयी मुद्रा में मैने देखा सब के हाव भाव से लगा कि शायद मैने प्वॉइण्ट स्कोर कर लिया है.

अब यूनियन नेता की बारी थी. बड़ी शालीनता से वह प्रारम्भ हुआ. शुद्ध हिन्दी में साहब, आप तो पढ़े-लिखे हैं. मैं तो आठवीं पास कर स्टीम इंजन का बॉयलर मैन भर्ती हुआ था. वैसे भी यह क्षेत्र (हिन्दी भाषी क्षेत्र) है. हमें तो अंग्रेजी आती नहीं. आप तो बहुत अच्छा बोल रहे थे, इसलिये मैने टोकना ठीक नहीं समझा. पर असली बात यह है कि आपने जो कहा हमें समझ में नहीं आया. न हो तो मेरे साथियों से भी पूछ लीजिये. पी.एन.एम. में 20 यूनियन वाले होते हैं. सबने मुण्डी हिलाई समझ में नहीं आया।

मेरा भाषण ध्वस्त हो गया. मैं कितना भी ओजस्वी बोला होऊं; नेगोशियेशन स्किल में हार गया. वह बन्दा अगर समझ नहीं आ रहा था तो बीच में रोक सकता था. पर बड़े धैर्य से उसने मेरी स्टीम निकाली. फिर जो माहौल बना, उसमें आप कितनी रिपीट परफार्मेंस देने की कोशिश करें हिन्दी में; वह समा बन ही नहीं सकता. नेगोशियेशन में समय का बड़ा महत्व है. वह मैने खो दिया था। नेता गुज्जर मसले की तरह उस मामले को आगे सराकाने में सफल रहा।

हमारे यूनियन नेता बहुत ही तेज होते हैं वक्तृता शक्ति और आर्ट आफ नेगोशियेशन में। एक उदहारण मेरे अंग्रेजीके ब्लॉग पर है.

बाद में मैने उस नेता को अकेले में पकड़ा- क्यों गुरू, अंग्रेजी नहीं आती? वह बोला साहब आपके तर्कों पर चर्चा कर मैदान हारना थोड़े ही था मुझे!

इस लिये मैने नसीहत गांठ बांध ली. अगला जब हिन्दी वाला हो और ऑफीशियली समझाना हो तो धीरे बोलो, हिन्दी बोलो.

कुल्हाड़ी में धार देने की उपेक्षा कर सकते हैं हम?


अगर मुझे आठ घण्टे लगाने हैं लकड़ियां चीरने में, तो मैं छ घण्टे लगाऊंगा कुल्हाड़ी की धार देने में – अब्राहम लिंकन

इस फटा-फ़ट के जमाने में अब्राहम लिंकन का उक्त कथन अटपटा सा लगता है. कुल्हाड़ी में धार देने की बजाय लोग चिरी चिराई लकड़ी खरीदने में (उत्तरोत्तर) ज्यादा यकीन करने लगे हैं. मैगी टू मिनिट्स नूडल्स की सारी अवधारणा अब्राहम लिंकन को नकारती है. स्टीफन कोवी की 7 हैबिट्स वाली पुस्तक में कुल्हाड़ी तेज करने का नियम है जो सभी नियमों के बाद में लिखा है. कितने लोग उसे ध्यान से देखते हैं?

पर क्या सफलता कुल्हाड़ी को धार दिये बगैर मिलती है? जो नियम शाश्वत हैं और यह धार देने का नियम शाश्वत है; उनकी सत्यता पर सन्देह करना गलत होगा. लिंकन जैसे सत्पुरुष की छोड़ दें; एक कुशल जेबकतरा या चोर भी अपनी कला को परिमार्जित करने में पर्याप्त समय लगाता होगा. अन्यथा नुक्कड़ का ऊंघता सिपाही भी उसे पकड़ कर नाम कमा लेगा.

तकनीकी विकास ने उत्क़ृष्टता के नये आयाम खोल दिये हैं. एक उत्कृष्ट काम करने के लिये पहले जितना समय और श्रम लगता था, आज उसका दशमांश ही लगता है. हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं हि उत्कृष्टता आसान हो गयी है. पर बेहतर तकनीक और अपनी क्रियेटिविटी का प्रयोग कर अगला व्यक्ति पहले से सौ गुनी अच्छी चीज सामने लेकर चला आता है और हमारी उत्कृष्टता आसान होने की अवधारणा ध्वस्त हो जाती है. तकनीकी विकास ने शारीरिक श्रम को बहुत सीमा तक हल्का किया है. पर बौद्धिक कार्य के आयाम को तो अनंत तक खींचता चला जा रहा है यह विकास.

नये जमाने में कार्य और कार्य करने की तकनीक बदल सकती है. पर आपको कुछ कर दिखाना है तो मेहनत तो वैसे ही करनी पड़ेगी जैसे पहले करनी थी. यही नहीं, नयी-नयी तकनीक को जानना होगा, अपडेट रहना होगा और उससे अपनी क्रियेटिव फेकेल्टी को सतत ऊर्जा देते रहना होगा. यह काम पहले से ज्यादा कठिन हो गया है.

मेहनत का कोई विकल्प दिखाई नहीं देता.

क्या केवल जुनून काफी है जीने के लिये?


एक उमर थी जब इब्ने सफी, बी.ए. की जासूसी दुनियां सबेरे पहले पीरियड में शुरू करते थे और तीसरे पीरियड तक खतम हो जाती थी. किराये वाली दुकान से आधी छुट्टी में दूसरी लाते थे और स्कूल से लौटते समय तक वह भी समाप्त हो जाती थी. सातवीं-आठवीं कक्षा में जुनून था जासूसी उपन्यास का. फिर गुलशन नन्दा का जुनून आया. उसके बाद हाई स्कूल तक कविता का मन बना. पहले खुद लिखीं शृंगार की कवितायें. अधकचरी. किसी को सुना भी नहीं सकते थे. वह जुनून ज्यादा नहीं चला. उसके बाद कवि आये. हायर सेकेण्डरी में हिन्दी के पर्चे में खूब कोट किया कवियों को उत्तर देने में.

जुनूनों की परम्परा चलती रही. एक जुनून छूटता तो वापस नहीं आता. दूसरा आता. पर जुनून का वैक्यूम नहीं रहा.

अब ब्लॉगरी का जुनून है. यह कब तक चलेगा, कह नहीं सकते. जिन्दगी जुनून हॉपर की हो गयी है. इस जुनून से उस जुनून पर फुदकने की. यह एक एचीवर का ब्ल्यू-प्रिण्ट नहीं है. इस जुनून हॉपिंग से आप कुछ हद तक प्रतिष्ठा पा सकते हैं. पर आप नोबल पुरस्कार नहीं पा सकते/करोड़पति नहीं बन सकते/गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत जैसी शख्सियत नहीं बन सकते. यह रियलाइजेशन अपने आप में पेनफुल है. पुनर्जन्म के सिद्धांत को छोड दें तो भगवान ने यही एक जिन्दगी तो दी है कर गुजरने के लिये.

जुनून हॉपिंग के कई वर्जिन फील्ड अभी बचे हैं. ब्रेन इंजरी पर हिन्दी में साइट का निर्माण उनमें से एक है. दो दिन पहले आलोक पुराणिक जी ने बताया है कि वे पांच किताबें साल भर में ठेलने वाले हैं। किताब ठेलना भी एक अच्छा जुनून हो सकता है (पुराणिक जी क्षमा करें,पुस्तक लेखन अपके लिए मिशन हो सकता हैं। जूनून वाली बात आप पर लागू नहीं होती). पर जुनून समय के टुकड़े को सार्थक कर सकता है; जिन्दगी सार्थक नहीं कर सकता.

मित्रों, जुनून एक तरफ; अगर चुनाव करना हो बनने का तो मैं एक गुड ब्लॉगर की बजाय एक पूअर गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत बनना ज्यादा पसन्द करूंगा. गुड ब्लॉगर बनने में कुछ महीनों/सालों का टाइम फ्रेम है. पर पूअर गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत बनने में तो जीवन भर की साधना चाहिये। लेकिन दोनों में कोई द्वंद्व भी हैं क्या?

केवल जूनून काफी नहीं है जीने के लिये!

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अनूप शुक्ला जी (एण्ड ऑल द ब्लॉगर्स ऑफ रेप्यूट), डू यू हैव अ कमेण्ट? एण्ड आइ वुड लाइक अ लॉंगिश कमेण्ट. यह मेरे बतौर ब्लॉगर चलते रहने के लिये और शायद अन्य ब्लॉगरों के लिये भी जरूरी होगा.

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