कस्टर्ड, कजिया और कोरोना

आज सवेरे पौने छ बजे साइकिल ले कर निकलते समय पत्नीजी ने कहा – किराना की कोई दुकान खुली मिले और कस्टर्ड पाउडर मिल जाये तो ले लेना।

यहाँ बाबूसराय में एक “बड़ी” किराना की दुकान है। बड़ी इन अर्थों में कि वह गांवदेहात के छोटे किराना वालों को थोक सामान देता है। कोरोना लॉकडाउन के युग में वहाँ जाने के लिये मैंने मन में गांव की पतली सड़कों से वहां पंहुचने का मैप बनाया।

कटका पड़ाव से गिर्दबड़गांव की सड़क। उससे ईंट भठ्ठा के बगल से निकलती सड़क (जो सर्पिल आकार में गांवों के बगल से गुजरती, नहर को क्रॉस करती है) से वहांं पंहुचा जा सकता था। यह कभी टूटी गिट्टी और कभी डामर या खड़ंजा और कभी पगडण्डी के माध्यम से बनी है। जरा सी चूक होने पर किसी अन्य रोड-ट्रिब्यूटरी में साइकिल घुमाने से भटकने के बहुत चांस हैं। पर मैंने सवेरे की सैर में यह जोखिम उठाना उचित समझा।

सवेरे आजकल ठण्डी हवा होती है। सूर्योदय हुआ ही होता है। साइकिल मजे में चलती है। कहीं लोगों की भीड़ मिलने की सम्भावना नहीं होती। किसी से मिले बिना (जो सोशल डिस्टेंसिंग की मूल आवश्यकता है) आनंद लेते हुये भ्रमण किया जा सकता है।

सूर्योदय काल। इस हाईवे की सर्विस लेन से कुछ दूर चल कर गांव की सड़क पकड़नी थी।

लॉकडाउन शहरी अवधारणा है। गांव तो अपना सामान्य काम करता दिखता है। फसल की कटाई, दंवाई, सब्जियों के खेत की देखभाल, सब्जियां तोड़ कर बाजार तक ले जाना और ईंंट भठ्ठा का कामधाम – सब वैसे ही चल रहा है, जैसे पहले था। लोग पहले से ज्यादा मुंह ढंके जरूर दिखते हैं; पर वह शायद गेंहू की कटाई और थ्रेशिंग से उठने वाली धूल से बचाव के लिये ज्यादा है, कोरोना के भय के कारण उतना नहीं।

लॉकडाउन वहां होता है जहां लॉक (ताले) हों। गांव में ताले कम हैं और उसी अनुपात में लॉकडाउन की कसावट कम है।

मैं सोचता था कहीं भी लोगों का जमावड़ा नहीं होगा। पर मैँ गलत निकला। एक जगह चालीस पचास की भीड़ थी। मैं दूर ठिठक गया। माजरा समझने में समय लगा। सवेरे सवेरे कजिया (स्त्रियों/ग्रामीणों की रार) हो रही थी।

कजिया के मुख्यपात्र तो चार पांच ही होते हैं। आधा दर्जन से कम ही। पर कजिया की इण्टेंसिटी के आधार पर तमाशबीनों की भीड़ इकठ्ठा हो जाती है। यहां बड़ा कजिया था, बड़ा और जानदार मनोरंजन।

एक मोटी सी औरत कजिया की मुख्य भूमिका में प्रतीत होती थी। उसकी दबंग आवाज में बार बार ललकार थी – आवअ, आपन माँ चु@#$ आई हयअ का, *सिड़ी वाले। निश्चय ही वह औरत अपनी दबंगई से आदमियों की मिट्टी पलीद कर रही थी।

अपने नोकिया वाले फीचर फोन से मैंने चित्र लिया। कजिया के रंगमंच की बगल से साइकिल चलाता निकल गया। बाद में देखा कि भीड़ से बच कर निकलने के चक्कर में हाथ हिल गया था और जो फ्रेम चित्र का सोचा था, वह दर्ज ही नहीं हुआ। बड़ा पछतावा हुआ। पर भीड़ का अंश (लगभग 5-10 परसेण्ट) जो दर्ज हुआ, वह ब्लॉग पर प्रस्तुत है –

कजिया स्थल का हाथ हिलने से किनारे का चित्र। कजिया स्थल का कोर नहीं आ सका है इसमें। सॉरी!

आगे; बाबूसराय की किराना दुकान में करीब पांच ग्राहक थे। बाहर रस्सी बांध रखी थी दुकानदार ने, जिससे उसके काउण्टर पर भीड़ न लगे। छोटी दुकानों वाले आये थे सवेरे साढ़े छ बजे; अपनी दुकानों के लिये खरीददारी करने हेतु। उनके हाथों में सामानों की फेरहिश्त थी। काफी तत्परता से दुकान वाला, अपने तीन असिस्टेण्ट के साथ उनको निपटा रहा था। वह एहतियात के लिये मुंह पर मास्क लगाये था।

दुकान के बाहर रस्सी लगी थी, सोशल डिस्टेंस बनाने के लिये।

कस्टर्ड पाउडर था नहीं उसके पास। गांवदेहात में इसकी खपत ही नहीं है। सामने एक ग्राहक अपनी दुकान के लिये पार्ले-जी के ग्लूकोज बिस्कुट के बड़े पांच-छ बण्डल खरीद रहा था। पार्ले-जी की खपत बहुत है गांवदेहात में।

दुकान का कोई व्यक्ति शायद बनारस गया था मण्डी से थोक सामान खरीदने। दुकानदार ने उसे फोन कर कस्टर्ड पाउडर लेने का निर्देश दिया। … बाजार लॉकडाउन में लंगड़ा कर ही सही, काम कर रहा है। जो काम आदमी वैसे नहीं कर सकता, वह डिजिटल और फोन पर उपलब्ध जुगाड़ से करने का प्रयास कर रहा है।

मुझे सवेरे की सैर में सवा घण्टा लगा। मैंने बाबूसराय के दुकानदार के अलावा किसी से बात नहीं की। दूसरों से 2 मीटर की (कम से कम) दूरी का नियम नहीं तोड़ा। फिर भी सवेरे की सैर का अनुष्ठान संतोष के साथ सम्पन्न किया। … ऐसा सिर्फ गांव में रहने के कारण हो सका। वह भी तब, जब भदोही के इलाके में वायरस संक्रमण के मामले प्रकाश में नहीं आये हैं।

सतर्क, नजर बनी है खबरों पर। अगर आसपास में कोई कोरोना संक्रमण का केस मिला या कोई पूर्वांचल में कोरोना के कम्यूनिटी स्प्रेड की कोई आहट मिली तो जिंदगी जिस आधार पर चलेगी; उसका ब्लू-प्रिण्ट रोज बनाता और परिमार्जित करता रहता हूं मन में।

कोरोना का भय है, पर हाथ धोये जा रहा हूं और जिंदगी जिये जा रहा हूं। और उस सब में रस के अवसर भी देखता रह रहा हूं। शायद सभी वैसा कर रहे होंगे। … अवसादग्रस्तता की खबरें बहुत सुनने में नहीं आतीं।

“कोरोना का भय है, पर जिंदगी जिये जा रहा हूं और उसमें रस के अवसर भी देखता रह रहा हूं। “आज यह दो बीघे का सब्जी का खेत दिखा। उससे खीरा तोड़ता किसान दम्पति भी था।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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