हर्ड इम्यूनिटी बहुत सुनने में आ रहा है। बहुत से लोग कह रहे हैं कि कोरोना वायरस का टीका मिलना आसान नहीं है। छ महीने में मिल सकता है, दो साल भी लग सकते हैं। या यह भी हो सकता है कि इस वायरस का कोई टीका मिले ही न! इस लिये रेवड़ रोगप्रतिरोधकता (हर्ड इम्यूनिटी) ही सही तरीका है इस रोग से लड़ने का।
प्रधानमन्त्री-इन-वेटिंग अव्वल तो पप्पू हैं। पर कल उन्होने सही कहा कि लॉकडाउन केवल पॉज़ बटन है। डिलीट बटन नहीं। समस्या बस यही थी कि उनके पास डिलीट बटन का कोई आइडिया नहीं था।
उसका एक आइडिया स्वीडन के पास है। वहां वे अपने देश में वृद्धों को बचाते हुये जवान पीढ़ी को हिलने मिलने दे रहे हैं। इस प्रकार उनकी सोच है कि लोग कोविड19 से जूझें और रेवड़ रोगप्रतिरोधकता (herd immunity) का विकास हो। जब जनसंख्या का 60-70 फ़ीसदी भाग यह प्रतिरोधकता अपने में विकसित कर लेगा तो रोग का प्रसार रुक जायेगा और वह समाज से गायब हो जायेगा। यह सोच अन्य देशों से भिन्न है और इस कारण से स्वीडन की आलोचना भी हो रही है। वहां लोग पास के अन्य नोर्डिक राष्ट्रों की तुलना में ज्यादा मर रहे हैं। पर फिर भी स्वीडन अपनी सोच पर अडिग है और रोग से बचाव के लिये यह जोखिम उठाने को तैयार है।

मेरे पास जानकारी लेने के लिये नेट पर उपलब्ध सामग्री ही है। करीब 8-10 लेख, न्यूज आइटम और वीडियो पढ़े/देखे हैं पिछले दो-तीन दिनों में।

मेरे विचार से भारत वह नहीं कर सकता जो स्वीडन कर रहा है। जोखिम उठाने के लिये हमारे पास अस्पताल, डाक्टर और मेडिकल उपकरणों/सुविधाओं का वह नेटवर्क नहीं है जो स्वीडन जैसे समृद्ध देश के पास है। ऐसे में तात्कालिक महामारी-विस्फोट से बचने के लिये प्रभावी लॉकडाउन ही उपाय था, जो भारत ने बखूबी किया। बावजूद इसके कि तबलीगी मानसिकता या शहरों में रहने वाली प्रवासी मजदूर जनता उस लॉकडाउन को पंक्चर करने का प्रयास करती रही; रोग के प्रसार के मामले छ-सात दिन में ही दुगने हो रहे हैं। हमारे यहां वैश्विक महामारी स्तर की मौतें भी नहीं हुई हैं। देश में हॉटस्पॉट्स के अलावा शेष 71 प्रतिशत भौगोलिक भाग कोविड19 के प्रकोप से बचा हुआ है।

पूरी मशीनरी जिस उत्साह, और मिशनरी जुनून के साथ काम कर रही है – उसे देख मुग्ध ही हुआ जा सकता है। सौभाग्यवश भारत में वैज्ञानिकों और महामारी विशेषज्ञों की अच्छी और प्रतिबद्ध जमात है। मैं जब आई.सी.एम.आर. के महामारी और संक्रामक रोग विषय के हेड पद्मश्री डाक्टर रमण गंगाखेडकर (उम्र 60+) को देखता – सुनता हूं तो उनसे अत्यन्त प्रभावित हुये बिना नहीं रह पाता।

यह लगता है, अन्ततोगत्वा, हमें समाज में रेवड़ रोगप्रतिरोधकता – हर्ड इम्यूनिटी – विकसित करनी ही होगी। आप डा. जयप्रकाश मुलिईल, शीर्ष एपिडिमियॉलॉजिस्ट के विचार पढ़ें। हमें महामारी प्रसार के चार्ट को दबा कर इतना “फ़्लैटन (flaten)” करना होगा कि महामारी का प्रकोप हमारी स्वास्थ्य सम्बन्धी तैयारी केे अनुपात में रहे। उसके साथ लोगों को इस प्रकार से काम करने को कहा/सुझाया/गाइड किया जाये कि लोग व्यर्थ का जोखिम न लें, पर काम और मेलजोल करते हुये रेवड़ रोधप्रतिरोधकता का वह स्तर पा लें, जिससे यह रोग स्वत: निष्प्रभावी हो जाये।
टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में संजीव सबलोक का यह ब्लॉग मुझे काम का लगा। इसमें वे बताते हैं कि भारत को स्वीडिश अनुसंधानकर्ता एण्डर्स टेगनेल की सलाह मानने की जरूरत है।
रेवड़ प्रतिरोधकता पाने में कितना समय लगेगा? शायद साल भर। सन 2020 के अन्त तक भारत वह प्रतिरोधकता पा लेने का लक्ष्य ले कर चल सकता है।
मैं अपने और अपने परिवार के विकल्प सोचता हूं। गांव में रहते हुये हमारे पास जगह की समस्या नहीं है, जिससे शहरी लोग दो-चार हैं। हम अगर अपनी जरूरतों में कुछ कतरब्योंत कर लें तो आसपास के कस्बाई बाजार से उनकी पूर्ति हो सकती है। अन्न, सब्जी और दूध तो काफ़ी सीमा तक घर-गांव ही देने में सक्षम है। बैंक मेरे मोबाइल में ही है। रिटायर्ड व्यक्ति होने के कारण मुझे अपनी जीविका के लिये भी यात्रा करने (commute करने) की आवश्यकता नहीं। पुस्तकें, इण्टरनेट और आसपास टहलने के लिये साइकिल पर्याप्त होंगे। आगे आने वाला साल भर आसानी से काटा जा सकता है बिना कहीं बाहर गये और सोशल डिस्टेंसिंग धर्म का पालन करते हुये। इतने अच्छे विकल्प (कम से कम कष्ट के साथ) बहुत कम लोगों के पास होंगे!


मेरी उम्र मेरे पक्ष में नहीं है। चौंसठ प्लस की उम्र आंकड़ों के अनुसार जोखिम वाली है। पर अभी हाल ही में मैं बीमार रह कर उठा हूं और उसके फलस्वरूप अपना रक्तचाप, डाइबिटीज और ऑस्टियोअर्थराइटिस का बेहतर प्रबन्धन मैने सीख लिया है। मेरा रक्तचाप सामान्य है। पिछले तीस साल में पहली बार मेरा बी.एम.आई. मोटापे की सीमा से नीचे उतर कर सामान्य में प्रवेश किया है। मेरा ब्लड-शुगर; मधुमेह की दवायें आधी करने के बाद भी बिना मधुमेह के व्यक्ति के समतुल्य चल रहा है – पिछले तीन महीने से। उम्र का आंकडा रोकना तो अपने हाथ में नहीं है, पर स्वास्थ्य के हिसाब से कोरोना से लड़ने के लिये इससे बेहतर समय नहीं हो सकता था मेरे लिये।
आशावादी बनने और बने रहने के कई घटक हैं मेरे पास।
जानकारी रखना, जो हो रहा है उससे रीयल टाइम में परिचित बने रहना और अपनी सोच को उपलब्ध जानकारी के आधार पर बदलने को तत्पर रहना – यह बहुत जरूरी है आज के कोविड19 संक्रमण के माहौल में।