गुन्नीलाल मेरे जीवन की दूसरी पारी के सखा हैं। वे स्कूल में अध्यापक थे। अपने पिता के अकेले पुत्र हैं, सो खेती किसानी बंटी नहीं। स्कूली अध्यापक की पेंशन और गांव में खेती का बैक-बोन – सब मिला कर गुन्नी ग्रामीण परिवेश में सम्पन्न कहे जा सकते हैं। उनमें और उनके परिवार में मध्यवर्गीय सुरुचियां भरपूर हैं और शहरी मध्यवर्ग के दुर्गुण कत्तई नहीं हैं।
गुन्नीलाल जी पढ़ते रहते हैं, और देश परदेश के विभिन्न मुद्दों पर जानकारी और राय रखते हैं। घर की सजावट और साफसफाई को ले कर उनका पूरा परिवार सजग है। ऐसा सामान्यत: गांव के घरों में देखने में नहीं आता।
उनके पिता पण्डित रघुनाथ पांड़े नौ दशक देख चुके हैं। अभी भी उनका स्वास्थ्य, उम्र के अनुपात में, बहुत अच्छा है। एक ही घर में चार पीढ़ियां पूरे सामंजस्य से रहती हैं।
गुन्नीलाल जी का घर मेरे घर से करीब साढ़े तीन किलोमीटर दूर है। उनका गांव, अगियाबीर, गंगा किनारे वह गांव है जहां पुरातत्व विज्ञान की बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की टीम ने खुदाई की है और जहां चार हजार साल पहले की नगरीय सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
कल सवेरे साइकिल से उनकी ओर गया। गुन्नीलाल जी हमेशा बाहें फैला कर गले मिलते थे – यही हमारा नॉर्मल मोड ऑफ अभिवादन था। पर कल कोरोनावायरस काल में उन्होने दूर से नमस्कार कर स्वागत किया। घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे हम बैठे भी सोशल डिस्टेंसिंग के नॉर्म का विधिवत पालन करते हुये। नीम के फूल हम पर झर रहे थे। पर कोई थ्योरी यह नहीं कहती कि नीम के फूलों के माध्यम से भी कोरोना संक्रमण हो सकता है! 😆

गुन्नीलाल जी ने बताया कि घर से निकलना हो ही नहीं रहा है लॉकडाउन काल में। सब्जी भाजी जो गांव में मिल जा रही है, उसी से काम चलाया जा रहा है। इलाका कोरोना के मामले में सेफ है और उनका गांव तो पर्याप्त सेफ है। यह सुरक्षा छोड़ कहीं बाहर निकलने का मन ही नहीं हुआ उनका।

सिर पर बाल छोटे देख कर मैंने पूछा – कटाये कैसे? उन्होने बताया कि लॉकडाउन के कारण नाई नहीं आ रहा है। पड़ोस के पट्टीदार के लड़के ने एक मशीन से बाल छोटे कर दिये। उनके साथ उनके नाती के भी काट दिये।
उन्होने पड़ोस के उस लड़के को आवाज लगाई। लड़का – पंकज पाण्डेय अपना ट्रिमर ले कर आया। पांच सौ रुपये के ट्रिमर से हजामत के लिये नाई की जरूरत से मुक्ति मिल गयी। … लॉकडाउन कई पेशों का अस्तित्व खतरे में डाल देगा! 😆

गुन्नी पांड़े ने बताया कि नाई ही नहीं, हलवाई का पेशा भी खतरे में पड़ गया है लॉकडाउन की बदौलत। रोज रोज के भोजन से ऊब कर उनके बेटे संजय ने एक दिन जलेबी बनाई। साथ ही डबलरोटी और (जलेबी के बचे) शीरे के प्रयोग से एक और मिठाई बनाई – मालपुआ जैसी। अगर लॉकडाउन चला तो आगे जो प्रयोग घर में होंगे, उससे हलवाई की दुकान पर भविष्य में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी!

संजय के पास अपनी कथा है – लॉकडाउन के चक्रव्युह से निकल सकुशल घर आने की। मध्यप्रदेश के मण्डला के पास नवोदय विद्यालय में संजय अंग्रेजी के शिक्षक हैं। लॉकडाउन के बाद विद्यालय बंद हो गया। आसपास के बच्चे हॉस्टल खाली कर अपने घर चले गये। उनके अभिभावक आ कर ले गये। करीब तीस बच्चे एक्स्चेंज प्रोग्राम के अंतर्गत ओड़ीसा से आये थे। उनको लौटाने के लिये सिविल प्रशासन से सम्पर्क साध कर उन्हे वाहनों से भेजा गया। दो तीन अध्यापक साथ गये। उड़िया बच्चे तो अपने अपने घर पंहुच गये पर जो अध्यापक साथ गये थे, वे अभी वहीं फंसे हैं। वहां के नवोदय विद्यालय में रह रहे हैं।
उसी तरह वहां पढ़ रहे मध्यप्रदेश के बच्चों को छोड़ने आये उड़िया शिक्षक यहां फंसे हैं।
स्कूल बंद होने पर संजय के साथी अध्यापक की मोटर साइकिल से वे दोनो चार सौ किलोमीटर यात्रा कर हनुमना पंहुचे। साथी हनुमना के थे। सो वहीं रुक गये। हनुमना में एक बोलेरो मिली किराये पर। उसमें दो यात्री थे – दोनो सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुये मिर्जापुर तक आये। यहां गांव से गुन्नीलाल जी अपनी मोटर साइकिल से जा कर संजय को मिर्जापुर से गांव लाये। पूरा घर जो संजय के मण्डला में “फंसे” होने के कारण व्यग्र था, संजय के लौटने पर संतोष की सांस ले रहा है।

लॉकडाउन के दौरान लॉक व्युह से बच निकलने की इस प्रकार की और इससे भी कई अधिक रोमांचक कथायें होंगी, जिनपर उत्तर-कोरोना-साहित्य की रचना होगी। लिक्खाड़ लोग तो अभी ही काम पर लग गये होंगे!
चीन के वुहान की पृष्ठभूमि पर लिखी एक उपन्यासिका – ए न्यू वायरस – तो मैं आजकल पढ़ रहा हूं।
एक अन्य पुस्तक – Wuhan Diary: Dispatches from a Quarantined City जो चीन की प्रसिद्ध लेखिका फैंग फैंग ने लिखी है, और जिसे ले कर उनको कई प्रकार से धमकाया भी जा रहा है; 19 मई को प्रकाशित होगी और उसी दिन किण्डल पर भी उपलब्ध होगी। उसे खरीदने का मन बना रहा हूं, यद्यपि 678 रुपये की वह 300 पेज की पुस्तक कुछ मंहगी प्रतीत होती है।
यहां भारत में भी जिस स्तर का पलायन हुआ है और नेशनल हाईवे पर नयी साइकिल लिये अनेक लोग पूरब की ओर लौटते दिख रहे हैं, आजकल भी; उन सब की अपनी कथायें होंगी। वे कम रोचक नहीं होंगी!

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