मई 25, 2020, विक्रमपुर, भदोही।
मेरी प्रवृत्ति के विपरीत है यह।
चलते चलते अचानक रुक जाना और सड़क के किनारे चाक चलाते कुम्हार का चित्र लेना, या अचानक साइकिल का हैण्डल पतली सी पगडण्डी से गंगा किनारे जाने की ओर मोड़ देना, कभी साइकिल सड़क पर खड़ी कर पतली सी मेड़ पर अपने को बैलेन्स करते चलना और दूर किसी धोख का विभिन्न कोणों से चित्र लेना – ये सब मेरे वे कृत्य हैं, जो मुझे मेरी नजर में “अपने को विशिष्ट” बनाते हैं। किसी भी दुकान पर आवश्यक/अनावश्यक चीज की तहकीकात करना और मन होने पर खरीद लेना, उसी औरों से अलग होने की अनुभूति को पुष्ट करना ही है। कभी कभी लगता है कि मैं शहर के अपने कम्फर्ट-जोन को तिलांजलि दे कर गांव में इसलिये हूं कि उस वैशिष्ट्य को निरंतर भोगना चाहता हूं। मैं अगर धनी होता, सम्पन्न होता तो उस वैशिष्ट्य की प्राप्ति के अलग औजार होते। अब जो हैं, सो हैं।
मेरी प्रवृत्ति के विपरीत है दिन में तेईस घण्टे स्वैच्छिक लॉकडाउन या एकांतवास में रहना। ऐसा नहीं है, कि मुझे भीड़ में होना प्रिय है। एकांतवास मैं चाहता हूं। पर वह जनअरण्य से दूर, अलग घूमने, देखने और सोचने का एकांतवास है। जब मैं कोविड19 संक्रमण के कारण, 23 घण्टे घर के चारदीवारी में बंद रहने का निर्णय करता हूं, तो उसमें (बावजूद इसके कि स्वयम को अंतर्मुखी घोषित करता हूं) बहुत कुछ त्यागने का भाव है।
आज सवेरे 5 से 6 के काल की बहुत प्रतीक्षा थी। कल शाम को ही साइकिल की हवा चेक कर ली थी, कि कहीं सवेरे ऐन मौके पर हवा भरने के पम्प को खोजना-चलाना न पड़े। अपनी दाढ़ी का भी शाम को ही मुआयना कर लिया था कि कहीं सवेरे इतनी बढ़ी हुई न हो कि बाहर निकलने के पहले दाढ़ी बनाने की जरूरत महसूस हो, और वह बनाने में दस मिनट लग जायें।


पांच बजे निकलना था, पर मैं चार पचास पर ही निकल लिया। अन्धेरा छंटा नहीं था, पर इतना भी नहीं था कि सड़क न दिखे। इक्का दुक्का लोग थे। आसपास के खेतों में धब्बे की तरह लोग दिखे निपटान करते। फसल नहीं थी, खेत खाली हैं, तो निपटान करते लोग दिखते हैं। स्त्रियाँ भी थीं। स्पष्ट है कि हर घर में शौचालय बन गये हैं, सरकारी खर्चे पर; पर लोग उनका प्रयोग उतना नहीं कर रहे, जितना होना चाहिये। उनके प्रयोग के लिये पर्याप्त पानी की आवश्यकता है। उनको साफ रखने के लिये कुछ न कुछ खर्चा जरूरी है। पर जब पानी हैण्डपम्प या ट्यूब वेल से 20-25 मीटर ढोया जाता है, तो शौचालय साफ करने के लिये पानी श्रम लगा कर ढोना जरूरी नहीं लगता। लिहाजा, शौचालय मॉन्यूमेण्ट हैं और लोग-लुगाई खेत या सड़क/रेल की पटरी की शरण में जाते हैं।
गांवकाचिठ्ठा में यह सब लिखना इसे एक सटायर का सा रूप देता है। सटायर लिखना ध्येय नहीं अत: विषय परिवर्तन करता हूं।

द्वारिकापुर पहुंचने पर देखा तो आधा दर्जन बालू ढोने वाली नावें तैयार हो रही थीं दिन के काम के लिये। मजदूर पंहुच चुके थे। शायद कुछ उन्ही नावों पर ही रात में सोते हों। नाव में मुझे कुछ बर्तन और भोजन बनाने की सामग्री भी दिखी। रात में गंगा किनारे जरूर पार्टी सी होती होगी। सवेरा होने को था, सो उसकी रोशनी में चित्र अच्छे आ रहे थे। मैंने आठ दस मिनट उन नावों की गतिविधियों के विभिन्न कोणों से चित्र लिये। घाट पर एक चबूतरे को बुहार कर एक नित्य स्नान करने वाला स्नान करने गया। जब मैं वहां से वापस रवाना होने लगा तो देखा उस चबूतरे पर बैठ एक महिला माला फेर रही थी। मेरे द्वारा चित्र लेने का भी उसे भान था। माला फेरने में एकाग्रता उतनी नहीं थी, जितनी एक साधिका में होनी चाहिये। पर सवेरे गंगा तट पर आना, स्नान करना और चबूतरे पर अगरबत्ती जला कर ध्यान करने की क्रिया करना – यही कौन सा कम धर्मकर्म है?

सवेरे साइकिल सैर से मैं छ बजे तक घर लौट आया। द्वारिकापुर गंगा घाट के अलावा कहीं रुका नहीं और किसी से कुछ बोला नहीं। किसी के पास तीन चार मीटर से कम दूरी से गुजरा भी नहीं। कोरोना वायरस को पूरा सम्मान देते हुये सवेरे का भ्रमण।
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
उसके बाद दिन में या तो आराम किया; या अखबार पढ़ा, या मोबाइल-लैपटॉप-टैब पर पठन सामग्री पलटी। अमेजन प्राइम पर कुछ देखने का प्रयास भी किया। बस, दिन व्यतीत हो गया। दिन में गर्मी बढ़ी दिखी। कहते हैं नौ-तपा चल रहा है। पछुआ हवा है। लू बह रही है। वे भविष्यवक्ता जो कह रहे थे कि तापक्रम बढ़ते ही कोरोनावायरस अपने आप खतम हो जायेगा, अपनी खीस निपोर रहे हैं। ज्योतिषी लोग अपने अपने गोलपोस्ट बदल रहे हैं। “शनि हल्के से वक्र हो गये हैं; अब अगस्त बाद ही उनकी चाल कुछ पटरी पर आयेगी।“ नाखून में काजल लगा कर भविष्य ताकने वाले ने अपना व्यवसाय बदल दिया है। अब वह सब्जी बेच रहा है। भविष्य पूछने वाले श्रद्धालु आने कम/बंद हो गये तो बेचारा क्या करे?

अखबार में एक दो काम की स्थानीय खबरें दिखती हैं। सूरत से आया एक व्यक्ति बताता है कि घर से पैसे मंगा कर डेढ़ महीना वहां रुकने का यत्न किया। पर जब काम नहीं बना, तभी वह वापस घर लौटा। लोग अपने काम की जगह, अपना प्रवास जरा सी असुविधा पर ही छोड़ कर हजार हजार किलोमीटर की पैदल/साइकिल/ट्रक यात्रा पर नहीं निकले। उन्होने वहां अपने स्तर पर वहीं टिके रहने की जद्दोजहद की। वहां की सरकारें अगर कुछ करतीं; कुछ भी सहायता करतीं; तो यह व्यापक पलायन न हुआ होता।
यहां उत्तर प्रदेश की प्रांत सरकार की ओर से कुछ कदम उठते दिखते हैं खबरों में; जिनमें है कि प्रवास से लौटे लोगों को रोजगार देने का प्रयास किया जा रहा है। पर वह प्रयास मनरेगा जैसी योजनाओं का ही है। कोई नया उद्यम, नया कारखाना, नया मार्केट अनुसंधान – वैसा फिलहाल नजर नहीं आया। मनरेगा तो खैराती आर्थिक गतिविधि है। इससे जीडीपी पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं होगा।
एक खबर औषधीय खेती की पहल की है। खबर में आगे और जानकारी प्राप्त करने के लिये एक मोबाइल नम्बर भी है। पर इन औषधीय पौधों का बाजार कहां है, उसके बारे में लिखा नहीं। फिर भी कुछ न कुछ सोचा-किया जा रहा है। वह देख अच्छा लगा।

दिन भर कहीं निकला नहीं, तो वह विचार, वह मनन भी नहीं करना पड़ा कि कहीं से कोई विषाणु संक्रमण चिपक तो नहीं गया होगा। जब मन हुआ, तब हाथ साबुन से धो लिया। पर उसकी आवृति कम जरूर हुई।
घर में रहना, अपने किले में रहने जैसा है। विषाणु से सुरक्षित।