बहुत दिनों बाद गिर्दबड़गांव की उस धईकार बस्ती की ओर गया था, जहां वे खांची, छिंटवा, दऊरी आदि बनाते हैं। उस बारे में कल ट्वीट थी –
मैं सोचा करता था कि उनकी बांस की बनी वस्तुओं में जो कलात्मकता है, उससे उनको व्यापक मार्केट मिल सकता है। मैंने उनसे छोटे कटोरे के आकार के बांस के बर्तन बनाने को कहा। वे बाउल जो पर्याप्त डिजाइन दार और चटक रंगों के हों। इस बात को बार बार कहने के लिये मैंने 2017 में उनकी बस्ती में कई चक्कर लगाये थे। उसी समय उनके बारे में मैंने पोस्ट भी लिखी थी – धईकार बस्ती का दऊरी कारीगर।
मेरा विचार था कि लोग अपने डाइनिंग टेबल पर या ड्राइंग रूम में छोटे आकार के दऊरी का अपने अपने प्रकार से प्रयोग करना चाहेंगे। उसकी आकृति भी अर्ध गोलाकार की बजाय अगर चौकोर या दीर्घवृत्ताकार बन सके तो और सुंदर या विविध लगेगा। वह सब काफी कलात्मक होगा और उसे अमेजन जैसी साइट पर ऑनलाइन बेचना/कुरियर के माध्यम से भेजना भी सहज होगा। अगर नया उत्पाद पूरी तरह बांस का न हो तो उसमें लोहे या प्लास्टिक का छल्ला लगा कर अलग अलग आकृतियां बनाई जा सकती हैं बर्तन की।

पर वे अपने काम को जिस ढंग से कर रहे थे, जो उनका मार्केट था, उसमें कोई बदलाव करना नहीं चाहते थे। उन्होने मुझे न भी नहीं किया, पर बनाया भी नहीं। मैंने उन्हे दो पीस छोटे बाउल बनाने के लिये उन्हे बयाना पैसा भी दिया। जो अंतत: मैंने उन्हे दिये “सहयोग” मान कर छोड़ दिया। वे नया कुछ बनाने को तैयार नहीं हुये।
शायद मेरे उन्हे प्रेरित करने के तरीके में कुछ कमी थी। मैं शायद रेलवे के अधिकारी छाप भाषा में बात कर रहा था; उनके बीच का कोई व्यक्ति बन कर नहीं।
या शायद जिस ढर्रे पर वे काम करते हैं, उसमें कोई बदलाव वे सोच ही नहीं पा रहे थे।

आज संक्रांति के अवसर पर हम लाई, चिवड़ा, गुड़ की पट्टी, तिलकुट, रेवड़ी, गुड़ का लेड़ुआ और गजक जैसी चीजें खरीदने के लिये महराजगंज बाजार गये थे। वहां गिर्दबड़गांव की धईकार बस्ती के संतोष दिखे। एक साइकिल पर बांस की दऊरी लटकाये थे। दुकान वाले को उन्होने वे दऊरियां बेंच दीं।
मैंने पूछा – कितने में बिकीं?

“ढ़ाई सौ की एक। कुल नौ थीं।”
“कितने दिन लगे बनाने में?”
“दस ईग्यारह दिन। मेरे ही घर की बनी हैं। एक दिन में एक ही बन पाती है। कभी कभी वह भी नहीं।” संतोष ने बताया। उन्होने यह भी बताया कि वहां के आठ दस परिवार इसी तरह बना कर यहीं बाजार में बेचते हैं। इस पर दुकान वाला अपना पचास-सौ का मुनाफा जोड़ता होगा। मैंने दुकान वाले से उसका दऊरी का सेल प्राइस नहीं पूछा। किसी और दिन पता करूंगा। पर धईकार कारीगरों के मार्केट का मोटा अंदाज हो गया।
मैने पूछा उसके औजारों के बारे में। गंड़ासा नुमा औजार को उसने बताया – बांका। उसका प्रयोग वह बांस काटने में करता है। उससे छोटी बांकी। बांकी से महीन काम करता है वह – बांस को छीलना, दऊरी की सींके बनाना आदि। दऊरी बुनने के बाद उसके ऊपर बांस का रिंग नुमा गोला लगाता है। उसी से दऊरी में मजबूती आती है। उसने बिनी दऊरी और गोला दिखाया मुझे।
धईकार बस्ती का दऊरी कारीगर सेे

कस्बाई बाजार की हस्त निर्मित वस्तुओं की श्रम अनुसार वाजिब कीमत लगाने की क्षमता ही नहीं है। लोग बांस की इन चीजों की बजाय प्लास्टिक के टब से काम चला सकते हैं। धीरे धीरे स्थानीय शिल्प इसी प्रकार से हाशिये पर जाता और दम तोड़ता गया है। इनकी कलात्मकता की कीमत तो शहरी मध्य या उच्च-मध्य वर्ग ही सही सही लगा सकता है। पर उसके पास जाने के लिये प्रॉडक्ट में कुछ परिवर्तन करने होंगे। वही नहीं हो रहा है! 😦
आप, जो पढ़ रहे हैं, इसमें कुछ पहल कर सकते हैं? इस बारे में बेहतर जानकारी के लिये तीन-चार साल पहले की पोस्ट धईकार बस्ती का दऊरी कारीगर और झिनकू का अवश्य अवलोकन करें।