जेठ की तेज बारिश और मठल्लू यादव की मड़ई

परसों और कल तापमान 46 डिग्री तक था। कल तो उमस भी थी और लेटने पर बिस्तर मानो जल रहा था। आधी रात में हवा चली और आज सवेरे पांच बजे जब साइकिल-सैर के लिये तैयार हो रहा था तो हल्की बारिश थी।

चार किलोमीटर बटोही के साथ चलने पर जब अगियाबीर टीले की तलहटी में गंगा तट पर पंहुचा, तब भी यह अन्देशा नहीं था कि इतनी तेज बारिश होगी।

आसमान बादलों से भरा जरूर था, पर लगता था कि तेज पुरवाई बहेगी और उन्हें उड़ा ले जायेगी। पर अचानक हवा का रुख बदला। तेज पुरवाई पछुआ में तब्दील हो गयी। और लाई तेज/घनी बारिश।

अगियाबीर में गंगा किनारे यह दृष्य था। बादल घिरे थे। हवा चंचल थी। यदाकदा बिजली चमक जाती थी।

हम (राजन भाई और मै) ने टीले के खड़ंजे के किनारे साइकिलें खड़ी कर दीं। पेड़ के नीचे खड़े हो गये। तब भी आशा थी कि बारिश रुक जायेगी। वह बढ़ती ही गयी। मुझे अपने से ज्यादा अपने कैमरे और मोबाइल की फिक्र होने लगी। अगर उनमें पानी चला गया और वे खराब हो गये तो 20-25 हजार का चूना लग जायेगा। एक क्षण मैने निर्णय लिया – यह नहीं देखा कि राजन भाई कहां खड़े हैं; बटोही को बबूल के तने के साथ अधलेटा किया; अपना कैमरे/मोबाइल का थैला लिया और टीले पर तेजी से चढ़ गया। सामने एक मड़ई थी। एक औरत उसमें अपना सामान रख रही थी। उसे कहा कि कुछ देर मड़ई में रुकूंगा मैं। चिरौरी वाले अंदाज में कहता तो सम्भावना (भले ही बहुत कम) थी कि वह मना कर देती। अत: लगभग निश्चयात्मक अंदाज में मैने कहा।

मठल्लू की मड़ई।
मठल्लू ने अपने नाती को हमारे बारे में अपनी ओर से बताया – ये लोग अमीर हैं। इन्हे काम करने की जरूरत नहीं। अपने आनन्द के लिये टहल-घूम रहे हैं। मठल्लू के लिये हम अमीर थे (उनके यह कहने में कोई व्यंग नहीं था)।

खैर, उस महिला ने बिना झिझक मुझे आने दिया। मड़ई छोटी थी। दो खाट की जगह। पांच लोग उसमें थे। छठा मैं। किसान (नाम पता चला – मठल्लू यादव) ने अपने लड़के को भेजा, राजन भाई को ढूंढ कर लिवा लाने को। करीब दस-पन्द्रह मिनट हम वहां रुके, जब तक बारिश तेज रही।

मठल्लू मेरी उम्र के निकले। मैने बताया कि रेलवे में नौकरी करता था मैं और रिटायर हो कर गंगा किनारे गांव-देस देख रहा हूं। राजन भाई ने भी बताया कि वे कालीन के एक्स्पोर्ट का काम करते थे।

मठल्लू ने अपने नाती को हमारे बारे में अपनी ओर से बताया – मठल्लू ने अपने नाती को हमारे बारे में अपनी ओर से बताया – ए पचे अमीर हयें। एनके काम करई क जरूरत नाहीं बा। मजे के लिये घूमत-टहरत हयें (ये लोग अमीर हैं। इन्हे काम करने की जरूरत नहीं। अपने आनन्द के लिये टहल-घूम रहे हैं।)

मठल्लू यादव और छबीले। मड़ई के अन्दर।

मठल्लू के लिये हम अमीर थे (उनके यह कहने में कोई व्यंग नहीं था)। हमारे लिये टाटा-बिड़ला-अम्बानी-अडानी अमीर हैं। दूसरे, यह भी नहीं है कि अमीर को काम नहीं करना पड़ता। इन अमीरों को दिन में 10-12 घण्टे काम तो करना ही पड़ता है। रतन टाटा तो पचहत्तर के होने पर भी रोज साइरस मिस्त्री से तलवार भांजने को बाध्य हैं! … एक बार मुझे लगा कि मैं मठल्लू का प्रतिवाद करूं। कहूं कि चालीस साल बहुत खटा हूं काम करते करते। अब भी पढना-लिखना अगर काम हो तो दिन में 5 घण्टे तो कर ही रहा हूं। पर कुछ सोच चुप रह गया। इस मड़ई में बैठे किसान से क्या प्रतिवाद करूं? न वे मेरा काम समझ सकते हैं, न मैं उनका।

पढ़ने की आवश्यकता पर उन्होने एक बात कही। “आपके बड़ी जातियों में आज से चालीस साल पहले लड़के इस लिये पढ़ाये जाते थे कि बिना पढ़े उनकी शादी नहीं हो सकती थी। अब लड़कियां इसलिये पढ़ाई जाती हैं कि बिना पढ़े उनकी शादी नहीं हो सकती।”

मठल्लू का नाती था छबीले। दर्जा सात में पढ़ता है गडौली के सरकारी स्कूल में। बहुत बढ़िया नहीं है पढ़ने में। उसका फोटो खींचा मैने तो वह तन गया। मैने कहा – जरा हंस कर फोटो खिंचाओ। सो दूसरी बार खींचा। फोटो खींचते ही उसे देखने की जिज्ञासा हुई। सो दिखाये भी।

प्रीति, मठल्लू की नातिन। तीसरी कक्षा में पढ़ती है। घर का काम भी करती है।

नातिन थी प्रीति। तीसरी क्लास में पढ़ती है। मठल्लू ने बताया कि पठने में ठीक ही है। वर्ना उसे घर का काम करना होता है।

पढ़ने की आवश्यकता पर उन्होने एक बात कही। पढ़ने की आवश्यकता पर उन्होने एक बात कही। “आपके बड़ी जातियों में आज से चालीस साल पहले लड़के इस लिये पढ़ाये जाते थे कि बिना पढ़े उनकी शादी नहीं हो सकती थी। अब लड़कियां इसलिये पढ़ाई जाती हैं कि बिना पढ़े उनकी शादी नहीं हो सकती।”

गांव के परिवेश के लिये यह मुझे बहुत गूढ़ वक्तव्य लगा। शिक्षा का मूल ध्येय रोजगार या जागरूकता नहीं, शादी हो या न हो पाना है!

हम अमीर शायद नहीं हैं; पर मठल्लू गरीब हैं। थोड़ी खेती है और कुछ गोरू। अरहर होती है इस टीले पर। इसलिये कि टीले पर बारिश का पानी रुकता नहीं। सब्जी नहीं उगाते वे। मैने पूछा – मक्का नहीं उगाते? “नहीं। नीलगाय मक्का बरबाद कर देती है। इसके अलावा साही भी हैं। वे पहले पेड़ को खोद कर तोड़ देते हैं, उसके बाद मक्का के नरम दाने खा जाते हैं। टीले पर सियार भी हैं। दिन में भी घूमते हैं। मक्के को बरबाद करना उन्हे भी पसन्द है।”

एक लड़का बम्बई गया है रोजगार के लिये; मठल्लू ने बताया।

पानी का बरसना कुछ कम हुआ था। हमने रिस्क लिया निकल चलने का। मठल्लू के लडके/नाती लोग – कुलदीप और छबीले पेड़ के नीचे लिटाई हमारी साइकलें ले आये। कुलदीप ने हमें सहारा दिया ताकि गीली मिट्टी में बिना फिसले टीले की ढलान उतर सकें। हमने उन सब का धन्यवाद किया और मैने दोनो से हाथ मिलाया। उनका घर ऐसी जगह पर है कि नदी किनारे जाते समय उनके घर पर कभी न कभी रुकूंगा जरूर।

लौटते समय मैं सोच रहा था – चालीस साल इस तरह के अनुभव कभी नहीं हुये। सवेरे साइकिल भ्रमण। बारिश में फंसना। मड़ई में शरण और एक किसान से इस तरह मुलाकात/बातचीत! कितने अफसर यह अनुभव ले पाते होंगे? नौकरी में या उसके बाद।

लौटते समय मठल्लू यादव जी की मड़ई को एक बार फिर निहार कर देखा मैने।

यह फेसबुक नोट्स से ब्लॉग पर सहेजी पोस्ट है। फेसबुक ने अपने नोट्स को फेज आउट कर दिया, इसलिये पोस्ट्स वहां से हटा कर यहांं रखनी पड़ीं। नोट्स में यह पोस्ट जून 2017 की है।


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

2 thoughts on “जेठ की तेज बारिश और मठल्लू यादव की मड़ई

  1. उन्होंने और भी रोचक बातेँ कही थीं, जो कागज कलम न होने से नोट नहीं कर पाया. उनकी अपनी अलग दुनिया है!

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