इस्माइल फेरीवाला

उससे अचानक मुलाकात हो गयी। लेवल क्रासिंग पर मैं इंतजार कर रहा था ट्रेन के निकल जाने का। इंतजार भी लम्बा करना पड़ा। उस दौरान कई साइकिल, मोटर साइकिल वाले गेट बूम के नीचे से या उसे बाईपास कर निकल गये। इस ओर मैं अकेला अपनी साइकिल लिये खड़ा था।

मैं साइकिल नीचे से या बाईपास कर निकालने का काम नहीं करता। जिंदगी भर रेल की नौकरी में लेवल क्रासिंग को मैं ट्रेन परिचालन के लिये न्यूसेंस मानता रहा। कभी कोई गेटमैन सड़क यातायात के दबाव में ट्रेन के निर्बाध आवागमन में बाधा डाल कर गेट खोलता था तो उसकी ऐसी तैसी करता कराता था। अब रेल के विपरीत खड़ा हूं, तो यह अपना कर्तव्य समझता हूं कि पुराने ‘पाप’ के प्रायश्चित स्वरूप गेट के खुलने तक इंतजार करूं। बिना खीझे या उतावली दिखाये। और मेरे पास समय की कमी तो है ही नहीं!

यह अपना कर्तव्य समझता हूं कि पुराने ‘पाप’ के प्रायश्चित स्वरूप गेट के खुलने तक इंतजार करूं। बिना खीझे या उतावली दिखाये।

लेवल क्रासिंग के दूसरी ओर एक ट्रेक्टर और एक साइकिल वाला खड़े थे। साइकिल वाला पीछे करीयर पर और आगे हैण्डिल में सामान के थैले लादे था। इस लिये वह झुका कर पार कर पाने में असमर्थ था।

ट्रेन गुजर गयी तो वह साइकिल वाला और मैं गेट खुलने पर बीच ट्रैक में मिले। उसको मैंने रोका और पूछा कि क्या ले कर जा रहा है?

इस्माइल फेरीवाला – हम ट्रैक के बीचोंबीच मिले।

“पाव रोटी है साहब।”

उसने मुझे डबल रोटी, बन, पित्जा बेस जैसी चीजें दिखाईं। बताया कि सवेरे सात बजे महराजगंज बाजार में पण्डित की दुकान से सामान ले कर चलता है वह। विक्रमपुर, भगवानपुर, करहर, गडौली तक जाता है। गांवों में लोगों और दुकान वालों को यह सामान बेचता है। इग्यारह बजे वापस पंहुचता है महराजगंज। इंटवा गांव का रहने वाला है। नाम है इस्माइल।

“कितना कमाते हो इस फेरी से और इग्यारह बजे के बाद कोई और काम करते हो?”

इस्माइल की साइकिल पर लदा बेकरी का सामान

“डेढ़ सौ के आसपास मिल जाता है इससे। उसके बाद तिउरी में कारपेट सेण्टर है, वहां जा कर गलीचा बुनाई करता हूं” – इस्माइल ने उत्तर दिया।

“गलीचा बुनने में तो चार-पांच सौ मिल जाते होंगे?”

“नहीं साहब। कारपेट का काम बहुत महीन काम है। जितना बुनता हूं, उसके हिसाब से पैसा मिलता है। डेढ़-दो सौ से ज्यादा नहीं मिल पाता।”

मुझे मैदे के बने इन बेकरी आइटम की जरूरत नहीं थी, फिर भी इस्माइल से लिया। आखिर उससे कुछ तो लेना ही था। थैले में दूध की बोतल है, जिसे लेने सवेरे मैं निकलता हूं।

अर्थव्यवस्था को ले कर नौजवान रोना रो रहे हैं। नौकरी नहीं मिलती। #गांवदेहात में आठ हजार की मासिक आमदनी का मॉडल तो इस्माइल जी आज सवेरे सवेरे दे दिये मुझे। ऑफकोर्स, यह बहुत बढ़िया नहीं है। चार घण्टे फेरी लगाने में और उसके बाद छ घण्टा कारपेट की महीन बुनाई बहुत मेहनत का काम है। पर गांव में आठ हजार की आमदनी, जहां खर्चे अपेक्षाकृत कम हैं; बुरा नहीं है।

मुझे अपनी आठवीं की किताब में किसी अंगरेजी विद्वान का कथन लिखा याद आता है – न पढ़े होते तो सौ तरीके होते खाने-कमाने के!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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