सवेरे साइकिल भ्रमण के दौरान मिले थे प्रेमसागर और उनपर पचास से ऊपर पोस्टें हो गयी हैं। और उनकी यात्रा का अभी प्रारम्भ ही है। पिच्चर बहुत बाकी है, दोस्त! उसी तरह सवेरे साइकिल भ्रमण के दौरान ये श्यामलाल जी दिखे। मुझसे आगे करीब दो सौ मीटर दूर चलते हुये। मैंने साइकिल कुछ तेज की और दांयी ओर से बांये आया उनसे बात करने के लिये।

देखा – गेरुआ वस्त्र पहने थे। कुरता धोती (तहमद की तरह), सिर पर सफेद गमछा लपेटा था। पीछे लपेट कर कम्बल जैसा कुछ लिया था। बांये हाथ में एक झोला। कोई लाठी नहींं थी हाथ में। चाल तेज थी। आठ के.एम.पी.एच. वाली तो रही होगी। नंगे पांव, छरहरे और फुर्तीले थे वे साधू जी।
पास पंहुच कर जो पता किया उससे लग गया कि साधू नहीं हैं, पर सेमी-साधू जरूर हैं। दिघवट के कोट (टीले) पर डीहबाबा के स्थान में रहते हैं। राजातलाब के दक्खिन में कोई गांव है – नाम कई बार बताये पर मेरे भेजे में रजिस्टर ही नहीं हुआ। इतना अंदाज लग गया कि राजातलाब से पांच-एक किलोमीटर दक्षिण में होगा। उस गांवमें उनकी बिटिया ब्याही है। उससे मिलने गये थे। मिल कर भोर में ही निकल लिये हैं अपने घर – दिघवट के लिये। मैंने मोटा हिसाब लगाया। करीब 25 किलोमीटर चल चुके होंगे और अभी दिघवट पंहुचने में 6 किलोमीटर और चलना है। जिस तरह से वे चल रहे थे और जिस प्रकार से मुझसे बात की, उसमें ऐसा नहीं लग रहा था कि थक गये हों। आवाज में सांस फूलने का कोई निशान नहीं था। चेहरे पर बहुत पसीना भी नहीं टपक रहा था। मुझे लग गया कि यह व्यक्ति दूर दूर तक पैदल चल सकने में सक्षम है।

उन्होने अपना नाम बताया श्यामलाल।
श्यामलाल बोले कि वे श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं। तीन साथी थे। ट्रेन से गये। वहां उतर कर पैदल चले समुद्र तक। फिर जहाज से श्रीलंका। मैंने दो तीन बार पूछा – यह थोड़ा अटपटा लगा कि वीसा-पासपोर्ट कैसे जुगाड़ा होगा इन तीन लोगों ने। पर ज्यादा समझ नहीं आया। श्यामलाल ने यह भी बताया कि कामाख्या भी हो आये हैं। वहां भी ट्रेन से गये थे और फिर खूब पैदल घूमे।
यात्रा विवरण जानने का सवेरे समय नहीं था; दूसरे यह भी लगा कि दिघवट के कोट पर जा कर उन्हें तलाशा जा सकता है और उनके पास बैठ कर उनका वृत्तांत सुना जा सकता है।
प्रेमसागर से छुट्टी मिले तो श्यामलाल के पास जा कर उन्हें सुनूं। … या फिर उनको टिकट और यात्रा-खर्च दे कर ॐकारेश्वर रवाना कर दूं कि आगे की उनकी कांवर यात्रा में जोड़ीदार बन जायें। दोनो की कद-काठी, प्रवृत्ति और चलने की क्षमता बिल्कुल मिलती है! 😆

आजकल बिल ब्रायसन की “अ वाक इन द वुड्स” के बाद लेवीसन वुड की “वॉकिंग द नाइल” प्रारम्भ की है – पढ़ने और सुनने की जुगलबंदी में। यह तो लग ही गया है कि घुमंतू लोगों की कमी नहीं है, बावजूद इसके कि वाहनों और गैजेट्स की भरमार हो रही है। प्रेमसागर मिले और फिर श्यामलाल। हो सकता है साल छ महीने में पण्डित ज्ञानदत्त भी मिलें – पैदल नहीं, साइकिल के साथ!

(ज्ञानदत्त) पांड़े हर दिन नहीं सोता है; देखें आगे क्या होता है। 😆
जय हो, पदयात्राओं से भरी दुनिया में कुर्सी पर बैठे विशेष लाज आ रही है। दोनों पुस्तकें पढ़ना प्रारम्भ करते हैं, हो सकता है मन में कुछ उछाह आये।
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