कड़ाहे में बनता – गुड़ और चिनियहवाँ पेड़ा

सर्दियों का मौसम, आग पर चढ़ा कड़ाहा और उसमें उबलते तरल से उठती भाप – चलते हुए राही को बरबस रुक जाने और वहां खड़े हो उसकी ऊष्मा अनुभव करने को आमंत्रित करते है। ऐसे दो अनुभव मुझे पिछले सप्ताह भर में बटोही (अपनी साइकिल) के साथ अपनी नियमित सैर के दौरान हुए।

पहला अनुभव एक जगह सड़क किनारे बसे गांव में गन्ने के रस से बनने वाले गुड़ का था।

घर में कोई भी अतिथि आ जाये; भले ही प्रतिष्ठित हो या हरवाहा, उसे पानी पिलाना इस इलाके का एक जरूरी शिष्टाचार है। और पानी कभी केवल पानी भर नहीं दिया जाता। पानी के साथ कोई न कोई मीठा पदार्थ होता है। मिठाई न हो तो पार्ले-जी बिस्कुट या गुड़ की भेली भी चलता है। पर कुछ न कुछ मीठा होना चाहिये। इस समय गन्ने से गुड़ बनाने का समय है, सो कोई व्यक्ति जिसके यहां गन्ना हो और वह गुड़ बनाने/बनवाने बैठा हो, वह शायद आपको एक ग्लास गन्ने का रस ही पिला दे।

जगरांव में कड़ाहा चढ़ा था और गुड़ बन रहा था।

उस रोज शनिवार को सात किलोमीटर दूर जगरांव में एक सज्जन के यहां गुड़ बन रहा था। अपरिचित होने के बावजूद उनके यहां चित्र खींचने पंहुच गया। गन्ने के रस का अंतिम खेप भी कड़ाहे में डाला जा चुका था। दो महिलाएं गुड़ के भट्टी पर काम में लगी हुई थीं और एक सज्जन कुर्सी पर बैठे सुपरवाइज कर रहे थे या कड़ाहे की गर्मी का आनंद ले रहे थे।

उन्होने नाम बताया – दुर्गा प्रसाद यादव। गड़ौली (7 किमी दूर) के सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं। “अभी तो आज का रस खत्म हो गया है। कल रविवार है, छुट्टी का दिन। कल आप सवेरे कभी भी आइयेगा। आपको गन्ने के रस का सेवन कराऊंंगा। हमारा गुड़ तो अपनी जरूरत भर का ही बनता है। बेचने के लिये नहीं बनाते। गन्ना उतना ही उगाते हैं, जितने में घर का काम चल जाये।” दुर्गाप्रसाद ने बताया।

दुर्गा प्रसाद यादव। ऑफर दिया उन्होने अगले दिन गन्ने का रस पिलाने का।

उनके गांव उसके बाद गया नहीं, पर कड़ाहे के सामने बैठ गन्ने के रस सेवन का एक ओपन ऑफर मेरे सामने है! शायद अगले रविवार को भी वहां गन्ने की पेराई और गुड़ बनाने का कार्यक्रम जारी रहे और दुर्गा प्रसाद जी से पुनः मुलाकात हो। करीब आधा बीघा खेत में गन्ना बो रखा है उन्होने।

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आज सवेरे साइकिल सवारी के दौरान सड़क किनारे फिर एक कड़ाहे से उठती भाप का दृष्य दिखा। एक छोटी सी दुकान में सामने बनी भट्टी पर एक कड़ाहा रखा था और उसमें पड़े तरल को दुकानदार एक बड़े से पौने से हल्के हल्के चला रहा था।

पेड़ा बनाते संजय

साइकिल से उतर कर उस व्यक्ति से बात की। उन्होने बताया कि पेड़ा बना रहे हैं। एक सौ चालीस रुपया किलो बेचते हैं। मिठाई के नाम पर यही पेड़ा भर बनाते हैं। शाम के समय ब्रेड-पकौड़ा भी बनाते हैं। पहले पूना में बिजली कम्पनी में नौकरी करते थे। पेट में पथरी हो गयी तो छोड़ कर वापस चले आये। इलाज हुआ, तो पथरी गल गयी पर फिर एक दूसरी पथरी हो गयी। उसका भी ऑपरेशन हो गया है, पर इनफेक्शन है, इस लिये यहीं रहेंगे। यहीं इलाज हो रहा है। फिर यह काम भी खराब नहीं। महराजगंज-चौरी रोड पर यह जगह और दुकान भी उनकी खुद की है। दो महीने से यह काम शुरू किया है।

काम चल निकला तो यहीं रहेंगे, पूना वापस नहीं जायेंगे।

नाम बताया – सुरेंद्र। उन्हें कुछ अजीब लगा कि उनके चित्र ले रहा था मैं?

“यह फोटो किस लिये ले रहे हैं?”

सवेरे सवेरे यह कड़ाहा और उठती भाप बहुत सुंदर लग रही है, इसलिये।

कितनी चीनी होनी चाहिये पेड़े में? जो पेड़ा गांवदेहात में मिलता है उसमें मुझे लगता है आधी चीनी आधा खोवा होता है। लोग उसका प्रयोग पानी पीने-पिलाने में करते हैं। चिनियहवाँ पेड़ा कहा जाता है उसे। ज्यादा चीनी का पेड़ा और ज्यादा चीनी की चाय का ही प्रचलन है। गांवदेहात में जैसे कोरोना का भय नहीं है, वैसे ही डायबिटीज का भी भय नहीं है।

मैंने सुरेंद्र से बात जारी रखने के हिसाब से, आधा किलो पेड़ा भी खरीदा। देते समय उन्होने स्पष्ट किया – “यह आम पेड़ा है। चीनी होगी इसमें। अगर बहुत मामूली चीनी वाला चाहिये तो ऑर्डर पर बना सकते हैं। चार-पांच किलो का ऑर्डर। वह ढाई सौ रुपया किलो पड़ेगा।”

सुरेंद्र ने स्पष्ट किया कि पेड़े में चीनी वैसी ही है, जैसे आमतौर पर लोग चाहते हैं। ज्यादा ही है।

लॉकडाउन में पूना से गांव वापस आये थे? – मैंने पूछा।

“नहीं उससे पहले ही चला आया था। पथरी से तबियत बिगड़ने के कारण। पर अब वापस जाने का मन नहीं है।”

गांव देस की मिठाई दुकान। मैं नहीं समझता कि बहुत आमदनी होगी चिनियहवाँ (ज्यादा चीनी वाला) पेड़ा और ब्रेड पकौड़ा से। पर सुरेंद्र और उस जैसे गांवदेहात वाले यहां रहने के आराम और रोजगार की जरूरत के बीच झूलते रहते हैं। अभी दो ही महीने हुये हैं दुकान खोले। आशा करता हूं कि सुरेंद्र की दुकान चल जाये और उन्हे नौकरी के लिये बाहर न जाना पड़े।

पर 140रुपये किलो के चिनियहवाँ पेड़े का कितना बाजार है? मैं बहुत आशावादी नहीं हूं। सुरेंद्र के अच्छे भविष्य की कामना अवश्य करता हूं!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

2 thoughts on “कड़ाहे में बनता – गुड़ और चिनियहवाँ पेड़ा

  1. हमारे गाँव में जब गुड़ बनता था, हम बच्चे बगल के खेत से आलू, गाजर, और शकरकंद उखाड़कर और धो कर, उसको एक लोहे के तार में पिरोकर गुड़ की कढ़ाही के किनारे पे इस तरह अटका देते थे की कंद रस में डूबा रहे! आधे घंटे में ही आलू/गाजर/शकरकंद पक कर semi – transparent हो जाता था! वैसी अलौकिक मिठाई और कोई नहीं हो सकती! बरसों बाद भी जिव्हा पर उसका स्वाद है!

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    1. यह बढ़िया बताया आपने. पहले यह सुना नहीं. गर्म रस में डुबा कर यह प्रयोग किया जा सकता है, घर में…

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