हाल ही में मैंने एक पोस्ट लिखी थी – रघुनाथ पांड़े और धर्मराज के दूत ।
उसमें मैंनेे स्पष्ट किया था –
ऐसा नहीं है कि रघुनाथ पांड़े जी अभी मृत्यु की सोचने लगे हैं। पिछ्ले साढ़े तीन साल से तो मैं देखता/सुनता ही रहा हूं उनका यह मृत्यु-पुराण। एक पोस्ट और फेसबुक नोट्स पर है इस विषय में। देर सबेर उसे भी ब्लॉग पर सहेजूंगा। फेसबुक की “कांइया” नीति ने फेसबुक नोट्स गायब जो कर दिये हैं!
वह अक्तूबर 2018 की पोस्ट फेसबुक नोट्स आर्काइव्स से खींचतान कर निकाली है और नीचे प्रस्तुत है। यह पोस्ट आपको उम्र मेें नब्बे पार के एक व्यक्ति से परिचय कराती है; जो वैसे स्वस्थ है, पर देर सबेर होने वाली मृत्यु के बारे में सोचता रहता है।
मेरे मित्र गुन्नीलाल पांडे के पिता श्री रघुनाथ पाण्डेय। नब्बे प्लस की अवस्था। सब ठीकठाक है, पर मृत्यु से भय की बात हमेशा करते रहते हैं।
उन्होने बेटे से कहा – मुझे जरा लोरी जैसा सुनाया करो, जिससे नींद ठीक से आ जाये। “कौनों भूत जईसा बा सरवा, जेसे डर लागथअ। देखात नाहीं, पर बा। (कोई भूत जैसा है। दिखता नहीं पर भय लगता है उससे। लगता है कि है।)”

मृत्यु की सोच बड़ी कारुणिक है उनकी….
कहते हैं – मर जाने पर पूरा इत्मीनान कर लेना। डाक्टर से भी पूछ लेना। कहीं ऐसा न हो कि जान बची रहे। एक चिनगारी छू जाने पर कितना दर्द होता है। पूरी देह आग में जाने पर तो बहुत दर्द होगा। … न हो तो बिजली वाले फ़ूंकने की जगह ले जाना।
यह कहने पर कि बिजली वाला शवदाह तो बनारस में है, वे बोले – “तब यहीं ठीक रहेगा। आखिर मरने पर शव यात्रा में काफ़ी संख्या में लोग तो होने चाहियें। इतने लोग बनारस तो जा नहीं सकेंगे।”
हर आये दिन घर और पट्टीदार लोगों को बुलाते हैं – अब हम जात हई (अब मैं जा रहा हूं। कल शायद नहीं रहूंगा)। सब को हाथ जोड़ते हैं। अगले दिन फिर चैतन्य हो कर गांव में घूमते नजर आते हैं।

कुछ दिन पहले जिऊतिया के समय उन्होने कहा कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। बुखार है। डाक्टर के पास ले चला जाये उन्हें। संजय (उनके पोते) ने देखा तो बुखार नहीं था। उन्हें बताया गया कि आज दवा ले लें। घर में स्त्रियां जिऊतिया का निर्जल व्रत हैं। ऐसे में उन्हें ले कर अस्पताल जाना असुविधाजनक होगा। उन्हें दवा दी। दो घण्टे बाद अपने को ठीक महसूस करने लगे| उस प्लेसबो के मुरीद हो गये वे। बार बार वही दवा मांगने लगे। पेरासेटमॉल की गोली बहुत काम की निकली।
मुझे लगता है कि स्वास्थ्य के आधार पर अभी वे 4-5 साल तो चलेंगे ही। वैसे यह मृत्यु-पुराण पिछले दो साल से तो मैं सुन रह हूं। उसके पहले भी अपने परिवार में कहते रहे होंगे।
(गुन्नीलाल पाण्डेय बताते हैं कि सन 2014-15 से मृत्यु के बारे में सोचने-बोलने, अपना स्वास्थ्य खराब होने, दिल घबराने आदि की बातें करने लगे हैं। कुटुम्ब में उनसे उम्र में किसी छोटे की मृत्यु हो गयी थी। उसके सदमे में उन्हे लगा कि उनकी भी तबियत बिगड़ गयी है। वे भी जाने वाले हैं। लोग उस समय शवदाह के लिये गंगा घाट पर थे। गुन्नीलाल पिता की तबियत बिगड़ने की खबर पा कर घर वापस लौटे। सिवाय सदमे के बाकी सब ठीक था उनके साथ। दो घण्टे बाद सामान्य हो गये। पर उसके बाद से अपनी मृत्यु के बारे में बातें करने लगे हैं।
वैसे, गुन्नीलाल कहते हैं कि उनके पिताजी “मरना कत्तई नहीं चाहते”!)
सरल व्यक्ति हैं रघुनाथ पांडे और पिता/बाबा की पूरे मना से सेवा करने वाले हैं गुन्नी/संजय और उनका परिवार।
भगवान करे, रघुनाथ पांड़े शतायु हों!

ईश्वर करे, रघुनाथजी शतायु हों।
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जैसे जैसे उम्र बढ़ती है वैसे वैसे जीवन के प्रति मोह बढ़ता जाता है।
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मिठाई खाते समय जब अंतिम टुकड़ा बचता है तो उसे देर तक खाने और स्वाद बनाए रखने का मन होता है।
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