रिटायरमेण्ट के बाद गांव में घर बनाने और बटोही (साइकिल) के साथ घूमने में जिन पात्रों से परिचय हुआ, उनमें जमुना मोची भी है। और वह यहां मिले सबसे अच्छे पात्रों में एक है। जमुना भी मूलत: यहां भदोही जिले का रहने वाला नहीं है। चालीस साल पहले यहां आया था छपरा से। उस समय महराजगंज कस्बे के बाजार मेंं इतनी दुकानें नहीं थीं। कुल चार पांच दुकानें और उनके बाद खेत और पेड़ थे। तब से जमुना यहीं रह गये।
छपरा में अपने गांव आते जाते हैं, पर रिहायश यहीं हो गयी है।
जूता-चप्पल-बैग आदि की मरम्मत करते हैं। उसके अलावा जूते चप्पलों के तल्ले बाहर से मंगवा कर उनपर जूता बनाने का भी काम करते हैं। मैंने उनसे दो तीन जोड़ी चप्पलें ली हैं। अच्छी ही चल रही हैं। काफी मजबूत हैं।
मुझे लगता है कि लोग मुझसे बात करना चाहेंगे, मेरी बोलने बतियाने का स्तर या मेरी मेधा आंकेंगे। पर इन दोनो महिलाओं (पत्नी-बिटिया) को लगता है कि लोग मेरे बौद्धिक स्तर की बजाय मेरे जूते का ब्राण्ड देखेंगे।
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मेरा चमड़े का बाटा का जूता भी अब पुराना हो गया है। सोचता हूं कि बनारस या प्रयागराज की किसी हाई फाई दुकान से नया जूता खरीदने की बजाय जमुना से ही नया बनवा लिया जाये। पर मेरी पत्नीजी और मेरी बिटिया, जो मेरे व्यक्तित्व में अब भी राजपत्रित अधिकारी का अंश देखती हैं; को यह पचता नहीं कि किसी समारोह में मैं गांव के मोची का बना “चमरौधा” जूता पहन कर जाऊं। मुझे लगता है कि लोग मुझसे बात करना चाहेंगे, मेरी बोलने बतियाने का स्तर या मेरी मेधा आंकेंगे। पर इन दोनो महिलाओं (पत्नी-बिटिया) को लगता है कि लोग मेरे बौद्धिक स्तर की बजाय मेरे जूते का ब्राण्ड देखेंगे। इसलिये, फिलहाल अब तक जमुना से एक जोड़ी जूता नहीं बनवाया या खरीदा है।

हां, चमड़े की सभी चीजें, जिनका काम मरम्मत करा कर चल सकता है, वे मैं जमुना की गुमटी पर ले जाता हूं। उनकी जिंदगी बढ़ जाती है। एक चमड़े की बेल्ट, जो मैंने छब्बीस साल पहले खरीदी थी (जिसे मेरे एक निरीक्षक महोदय नीमच के बाजार से खरीद लाये थे), का चमड़ा अच्छी क्वालिटी का होने के बावजूद, उम्र लगभग पूरी हो चली है। उसकी लम्बाई कुछ कम करा कर एक चकत्ती लगवा कर दो बार जमुना के माध्यम से उसकी उम्र बढ़वा चुका हूं। कल फिर उसकी मरम्मत कराने जमुना के पास ले कर गया। उसका लूप (बेल्ट कमर में कसने के बाद खुला हिस्सा खोंसने वाला रिंग) टूट गया था। जमुना से नया बनवाया। दस रुपया बनवाई लगी।

एक नयी बेल्ट खरीदने की बजाय इस तरह से मरम्मत करवा कर पहनना मेरी पत्नीजी को तनिक नहीं सुहाता। पर अब उम्र बढ़ने के साथ देखता हूं कि उनका मेरी “चिरकुट” वृत्ति पर नाक-भौं सिकोड़ना पहले की अपेक्षा कम होता जा रहा है। जिंदगी भर उन्होने मुझे साहब बनाने, मेरा स्तर इम्प्रूव करने की जद्दोजहद की; अब शायद समझ गयी हैं कि मैं अपने मूल स्वभाव को त्यागने वाला नहीं हूं। 😀

सवर्ण लोग उसकी गुमटी के सामने खड़े खड़े अपने जूते चप्पल मरम्मत करवाते हैं। उसकी दुकान पर बैठना सवर्णियत की तौहीन लगती होगी। मैं, बैठ कर उससे बतियाता हूं।
लॉकडाउन में कैसे काम चला?
प्रश्न सुन कर जमुना एकबारगी अपनी आंखें बंद कर लेता है। “उसकी तो सोचना भी खराब लगता है। कोई काम नहीं था, कोई ग्राहक नहींं। घर का खर्चा चलाने के लिये तीन लाख का कर्जा हो गया है।” – जमुना उत्तर देता है।
इस ब्लॉग पर यह 1500वीं पोस्ट है।
मैं पूछने के लिये पूछ लेता हूं – मेरे लिये जूता बना दोगे?
वह बनाये हुये जूते दिखाता है। वे पसंद नहीं आते। मैं फरमाइश करता हूं कि जूते का तल्ला अच्छा होना चाहिये, गद्देदार। जिससे चलने में सहूलियत हो। वैसा तल्ला उसके पास उपलब्ध नहीं है। मंहगे तल्ले के मंहगे जूते की मांग यहां नहीं है। वह नया तल्ला लाना भी नहीं चाहता।
“अभी जितना सामान है, जितने जूते बनाये हैं; उनकी भी ग्राहकी नहीं है। ग्राहक आ रहे हैं लॉकडाउन के बाद। पर ग्राहकों के पास पैसा नहीं है। लगन की ग्राहकी थी कुछ समय के लिये। वह भी ज्यादा नहीं। अब तो मरम्मत का ही काम मिलता है।” – जमुना के कहने से यकीन होता है कि लोग अभी दैनिक खर्च लायक खरीददारी कर रहे हैं कस्बे के स्तर पर। उनकी माली हालत सामान्य नहीं हुई है।
अपनी मरम्मत की गयी बेल्ट ले कर वापस लौटता हूं। कम से कम एक दो साल और चल जायेगी यह एण्टीक बेल्ट!

मेरे पास भी एक बेल्ट है, तोहफे में मिला, 18 वर्ष पूर्व। अभी ठीक चल रहा है।
आपके लिखे में कई बार अपने सपनों की झलक पाता हूँ।
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