रेणु की “एक आदिम रात्रि की महक” से उभरी रेल यादें

एक सज्जन ने मुझे भुवन शोम देखने को कहा, तो दूसरे ने फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी एक आदिम रात्रि की महक पढ़ने की सलाह दी –

वात्स्यायन जी ने फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की एक आदिम रात्रि की महक की बात की

और मुझे लगा कि वास्तव में मैंने कितना कम पढ़ा या देखा है! खैर, हिंदी समय पर ‘रेणु’ जी की कहानी मिल गयी और वही नहीं, कई और भी मैंने डाउनलोड कर इत्मीनान से किण्डल पर पढ़ीं।

हिंदी समय के पन्ने पर ‘रेणु’ जी की सात कहानियां थीं। ये सातों एक वर्ड डॉक्यूमेण्ट बना कर किण्डल पर सहेज लीं। एक पुस्तक का मजा देने वाला प्रयोग। यह अमेजन पर खरीदने पर ढाई-तीन सौ लगते!


खैर, मुद्दे की बात; रेणु की कहानी में रेलवे के छोटे स्टेशन का वातावरण तो है। करमा जैसा चरित्र मैंने देखा नहीं, शायद ध्यान देता तो मिल जाता। पर यहीं कटका स्टेशन पर लखंदर है। मास्टर साहब हजार डेढ़ हजार की एवजी में उसे रखते हैं। स्टेशन की सफाई करता है। यहां तो नहीं, पर अपनी नौकरी के दौरान कई एवजी (दिहाड़ी वाले या कॉट्रेक्ट कर्मी) बड़े स्मार्ट देखे हैं मैंने। ब्रांच लाइन पर तो ब्लॉक वर्किंग और सिगनल एक्स्चेंज भी कर लेते हैं – ऐसा सुना है। उनके अथवा चतुर्थ श्रेणी के रेगुलर कर्मचारी से यह काम कराये जाने की रिपोर्ट होने पर मास्साब नप जाते हैं। पर ब्रांच लाइन में इस तरह का रिस्क दिलेर लोग ले ही लेते हैं यदा कदा।

छोटे स्टेशनों पर निरीक्षण करते इस तरह के दृष्य पर ध्यान देने और उसे मोबाइल कैमरे में लेने का शौक मुझे रहा है। रेल कर्मी अपना भोजन यूं भी बना लेते हैं प्लेटफार्म पर।

छोटे स्टेशन पर पनपते प्रेम-प्यार को देखने का अवसर नहीं मिला। मेरे साथ कम से कम चार पांच लोगों की “भीड़” रहती थी। उसमें निहायत व्यक्तिगत व्यवहार के दर्शन नहीं हो पाते। हां, नौकरी के शुरुआती दिनों में, जब गोधरा-रतलाम खण्ड का विद्युतीकरण का काम चल रहा था तो तीन ब्लॉक सेक्शन जिनमें सिंगल लाइन हुआ करती थी, वहां के काम को देखने के लिये फील्ड में मुझे जाना पड़ा।

वे लगभग जंगल के बीच के अनास, पंचपिपलिया और भैरोगढ़ थे। उन स्टेशनों पर मुझे हफ्तों रहना पड़ा। अनास स्टेशन पर, रात के एक बजे, यूं ही अकेले पटरी के किनारे दो किलोमीटर निकल गया। बीच का अनास नदी का पुल भी पार किया एडवेंचर के लिये। टपक जाता तो नीचे जल विहीन अनास नदी 25 – 30 मीटर नीचे थी। तब कोई मोबाइल होते नहीं थे। स्टेशन पर हल्ला मचा कि एओएस साहब गुम हो गये हैं। वह इलाका भील जनजाति का है और उनसे शहरी मानव के सम्बंध बहुत मधुर नहीं थे। कम से कम रेल स्टाफ वैसा ही समझता था कि अगर उनके चंगुल में मैं फंसता तो छिनैती करते और वह भी बिना मारे पीटे नहीं!

रात में दो-तीन कर्मचारी साथ में आरपीएफ रक्षक को ले कर मुझे ढ़ूंढने निकले। पर तब तक मैं दूसरी ओर के कैबिन में पंहुच गया था। उन सब ने राहत की सांस ली और मुझे समझाइश दी कि वैसा एडवेंचर रात में न करूं।

भैरोगढ़ स्टेशन पर चाय की गुमटी में बैठी वह किशोरी अभी भी मुझे याद है। वह किसी रेलवे कर्मी की बच्ची थी जो बहुत से बाहर से वहां आये कर्मचारियों को चाय पिलाया करती थी। उसी पर कुछ रेणु जी जैसे कथा बुनने की सम्भावना बनती थी।

उसी दौरान मैं माही नदी के किनारे बहुत घूमा। उसके दृष्य अभी भी याद हैं। माही नदी में एक बरसाती नदी “लाड़की” आ कर मिलती थी। मेरे मन में यह भी साध बाकी रही कि चल कर लाड़की का उद्गम स्थल देखूं।

इंजीनियरिंग विभाग के पीडब्ल्यूआई साहब का रजिस्टर का पोटला लादे चतुर्थ श्रेणी का कर्मी। रेणु इस पर खूब बढ़िया कहानी लिखते!

भैरोगढ़ स्टेशन पर चाय की गुमटी में बैठी वह किशोरी अभी भी मुझे याद है। वह किसी रेलवे कर्मी की बच्ची थी जो बहुत से बाहर से वहां आये कर्मचारियों को चाय पिलाया करती थी। उसी पर कुछ रेणु जी जैसे कथा बुनने की सम्भावना बनती थी। कोई भी जवान गैंग मैन या जूनियर पी डब्ल्यू आई भी उसके प्रेम में पड़ सकता था। उसकी चमकती आंखें और भरा शरीर अभी भी मुझे याद है। उसकी चाय की बिक्री खूब होती थी।


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बहुत समय बाद; तीस साल बाद; रिटायरमेण्ट के समय मैं एक बार पुन: भैरोंगढ़ और माही नदी के समीप गया। और सांझ का दृष्य वैसा ही लगा, जैसा मेरे रेल के शुरुआती दिनों में था।

माही नदी किनारे शाम। चित्र 2015 का है।

पंचपिपलिया, जैसा नाम है, बड़े बड़े पीपल के वृक्षों से आच्छादित था। कहा जाता है कि भीम की पत्नी हिडिम्बा यहीं की थी। वहां मैं एक सप्ताह रहा। वह भी जंगल और ऊबड़ खाबड़ इलाका। पर हिडिम्बा तो क्या, किसी नारी की छाया भी नहीं दिखी। मेरे भीतर के रेणु को जगाने के लिये न सही मन था और न माहौल। मैं एक शुष्क रेल यातायात सेवा का सहायक ऑपरेशन अधीक्षक था। जिसे अपने विभाग में अपनी ‘धाक’ जमाने की ज्यादा फिक्र थी। :-(

फणीश्वर नाथ रेणु तो क्या, किसी भी स्तर का कथाकार बनने के गुण मुझमें नहीं थे। आगे विकसित होंगे? राम जाने! लेकिन ट्विटर पर वात्स्यायन जी ने जब कहानी पढ़ने के लिए अनुशंसा की थी तो इस लिए तो कदापि नहीं की होगी कि मैं अपने आप को रेणु जी से तुलना कर देखने लिखने लगूं।

उस कहानी ने इतनी यादें ताजा कीं, वही बहुत है। कहानी का ध्येय वही होता है!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

3 thoughts on “रेणु की “एक आदिम रात्रि की महक” से उभरी रेल यादें

  1. गार्ड के रूप में कार्यरत कई बार कोटा से बड़ौदा जाने का अवसर मिलता है। अमरगढ़ – पंचपिपालिया का सेक्शन मुझे लगातार बाहर के दृश्यों की ओर खींचता है दो राय नहीं । बहुत ही रमणीयता भरे दृश्य! अब आपका ब्लॉग पढ़ने के बाद नए सिरे से देखना चाहूंगा।
    टनल से निकल कर गाड़ी पंच पिपलिया पहुंचती है तो किसी हिल स्टेशन की याद दिलाती है। स्टीम के जमाने में दृश्य और भी खूबसूरत रहता होगा।
    इन सब को देखकर लेखन की हूक उठने लगती है। कभी लिखूंगा जरूर..😊💐
    यादों में ले जाने का शुक्रिया!!

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  2. आपके संस्मरण की गाथा अपने तौर पर ही सराहनीय है।
    आपके अंदर कथा लेखन की युयुत्सा अपने आप ही आपके लेखन को अभिव्यक्ति देने लगी है।

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