गंगा तट की सुनहरी शाम और सुरती शेयर का समाजवाद – कोविड19


मैं अकेला था द्वारिकापुर में गंगा किनारे। सूर्यास्त होने में पंद्रह मिनट बचे थे। उस दौरान नदी, बबूल, उखमज, मकड़ी के जाले, शाम के समय अपना रेवड़ हाँकते गड़रिये, बालू ढ़ोने वाली नावें (जो काम रुका होने के कारण नदी किनारे पार्क की हुई थीं और उनके आसपास कोई नहीं था) आदि को मोबाइल के कैमरे में कैद कर रहा था। इस बीच नजर फिराई तो किनारे ऊचाई पर ये दो अधेड़ सज्जन अचानक कहीं से प्रकट हुये दिखे।

गेरुआ वस्त्र पहने व्यक्ति मुझे लगा कि कोई साधू होगा जो शाम के समय सध्यावंदन के लिये गंगा तट पर चला आया होगा। और दूसरा उसका चेला… पर यह समझने में देर नहीं लगी कि ये यहीं पास के गांव के गृहस्थ हैं। शायद मित्र।

गेरुये सज्जन माला नहीं जप रहे थे। हाथ में सुरती मल रहे थे और खड़े हुये सज्जन उस मलने की क्रिया का अवलोकन कर रहे थे। सुरती तैयार होने पर गेरुये ने कहा – आवअ, ल (आओ, लो)।

खड़े जी गेरुये के पास बैठ कर सुरती में अपना हिस्सा लेने लगे। दोनो में पर्याप्त सौहार्द लग रहा था।

सुरती, दारू की तरह बहुत सामाजिक टाइप की चीज है। अजनबी व्यक्ति भी सुरती फटकने वाले के पास खिंचा चला आता है। पूर्वांचल में, जहां पर्याप्त विपन्नता है और चाय शेयर करना अमीरी की श्रेणी में आता है; सुरती शेयर करना व्यापक है। यह वस्तु अजनबी भी (निसंकोच) मांग लेता है और देने वाला सहर्ष देता भी है।

एक मनोविनोद भी है – कृष्ण चले बैकुण्ठ को, राधा पकरी बांंय, हिंया तमाकू खाय लो, उहां तमाकू नांय (कृष्ण वैकुण्ठ को चलने लगे तो राधा ने बाँह पकड़ कर कहा कि तम्बाकू (सुरती) तो खाते जाओ। वहाँ नहीँ मिलेगी सुरती)। 😆

समाजवादी पार्टी को साइकिल की बजाय बाबा छाप सुरती को अपना चुनाव चिन्ह बनाना चाहिये था। वह साइकिल की अपेक्षा कहीं ज्यादा सशक्त समाजवादी चीज है।

आजकल कोरोनावयरस के आतंक के युग में आईसीएमआर (Indian Council of Medical Research) ने पान मसाला, गुटका आदि न सेवन करने की एडवाइजरी जारी की है। उस कारण से उत्तरप्रदेश सरकार ने पान मसाला और तम्बाकू/गुटखा पर पाबंदी लगा रखी है। सिगरेट कम्पनियों ने महीने भर के लिये अपनी फैक्टरियाँ बंद कर दी हैं। पर कच्चे तम्बाकू और चूने की जनता की चुनौटियाँ आबाद हैं। मैंने लोगों को मास्क या गमछा लपेटे पर सुरती मलते देखा है।

“कोरौनवा सुरती खाई क मरि जाये (कोरोना भी सुरती खा कर मर जायेगा)” यह सुरती प्रेमी को कहते सुना है।

खैर, हास्य छोड़ दें; पर गंगा तट पर सांझ की सुनहरी किरणों की छाया में सुरती शेयर करते ये सज्जन बहुत शानदार और जानदार दृष्य प्रस्तुत कर रहे थे। अगर सोशल डिस्टेंसिंग का झमेला न होता तो मैं उनके पास जाता और कुछ बातचीत करता। उससे शायद यह पोस्ट और वजन रखती।


गाँव देहात और गंगा तट का एकांत


सामाजिक दूरी में प्रकृति से दूरी बनाना शामिल नहीं है। शहरों में सड़कें वीरान हैं तो वन्य जीव उनपर विचरने चले आ रहे हैं – ऐसी खबरें आये दिन आ रही हैं। सामाजिक अलगाव जो रिक्तता उपजाता है, प्रकृति उसे भरने के लिये पंहुच जाती है।

यहाँ, गांवदेहात में, कोविड19 के कारण लोग सतर्क हैं, पर अपना कामधाम किये जा रहे हैं। अर्थव्यवस्था के रुक जाने का हाहाकार शहर में ज्यादा है। गांव में तो लोग सरसों की कटाई-दंवाई कर चुके। अरहर कट रही है। गेंहूं की फसल तैयार है और कहीं कहीं किसान ने कटाई शुरू भी कर दी है।

अरहर की खेप ले जाने को सड़क पर खड़ा ठेला (सगड़ी)।

भेड़-बकरी चराने वाले उसी तरह चरा रहे हैं, जैसे पहले चराते थे। गांव का किराने के सामान वाला वैसे ही दुकान खोलता है, जैसे पहले खोलता था। पाही पर चाय बनाने और समोसा तलने वाला भी अपनी गुमटी पर बैठता है। डण्डा फटकारने वाली पुलीस का यहां कोई हस्तक्षेप नहीं।

एक गेंहू के खेत में मुझे आवाज से लगा कि वहां फसल कटाई चल रही है। पर ध्यान से देखने पर पता चला कि एक नीलगाय का झुण्ड खेत में है और खड़ी फसल चर रहा है। मेरे पास कैमरा नहीं था और मोबाइल के कैमरे से मात्र अहसास सा ही दर्ज हुआ उस झुण्ड के कद्दावर पुरुष-नीलगाय का।

खेत में बायें जो धब्बा दिख रहा है, वह कद्दावर नीलगाय है। मुझसे उसकी दूरी 15 मीटर रही होगी।

बच्चों पर सोशल अलगाव का ज्यादा असर नहीं पड़ा है। वे खाली पड़े खेतों और सड़कों पर आइस पाइस, कबड्डी या क्रिकेट खेलते दिख जाते हैं। सुबह भी और शाम को भी।

बाकी, सुबह शाम सूरज की किरणें, गंगा नदी का बहाव, बबूल के झुरमुट और उनके झाड़ों पर उखमज (पतिंगे) वैसे ही हैं, जैसे थे। किसी आयरस-वायरस का कोई प्रभाव नहीं।

केवल कुछ वयस्क लोग दिखते हैं मुँह ढंके।

(पोस्ट के चित्र लेने की कवायद में किसी व्यक्ति के पास आने का न प्रयास किया गया और न कोई आसपास आया। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हुआ।)


कोविड19 प्रसार, मसाले, गिलोय और इम्युनोलॉजी


कोविड19 का प्रसार पिछले दो दिनों में तेजी से हुआ है। तबलीगी जमात की कृपा (?) से मामले तेजी से बढ़े और पूरे देश को इन लोगों ने धांग दिया। टेस्टिंग की सुविधायें भारत में वैसे भी ज्यादा नहींं थीं। उनपर दबाव और बढ़ गया। शायद एक तिहाई टेस्टिंग तबलीगी जड़ता को समर्पित हो गयी। पुलीस अपना जरूरी काम छोड़ मस्जिदों को खंगालने लगी। यह तबका सहयोग ही नहीं कर रहा था। इंदौर में तो इन शूरवीरों ने नर्सों-डाक्टरों-आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को पत्थर मारे और दौड़ाया। अन्य स्थानों पर इन महानुभावों द्वारा पुलीस पर थूकने, नर्सों से अश्लील इशारे करने और डाक्टरों से अभद्र बर्ताव करने के केस भी सामने आये हैं। लॉकडाउन को पर्याप्त क्षति पंहुचाई है इस जमात ने।

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