दशकों पहले कुप्पु. सी. सुदर्शन जी को कहते सुना था कि धर्म शंकु की तरह नहीं होता जो उठता है और फिर गर्त में चला जाता है। धर्म चक्र की तरह होता है जो ऊपर उठता है, नीचे जाता है, फिर ऊपर उठता है। हर समाज के उत्थान-पतन-उत्थान की तरह धर्म का चक्र भी बदलता रहता है।
उसी भाषण में सुदर्शन जी ने कहा था कि महाभारत काल से ही ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो अपने स्थान से नीचे गिरते चले गये। वे पुनः उत्थान के दौर में कब आयेंगे यह आगे आने वाले समय की बात होगी।
लम्बे अर्से बाद आज टेलीवीजन पर महाभारत देखते समय वही आभास हो रहा है। आज दौपदी का चीर हरण देख कर मन बहुत उद्विग्न हो उठा। सवेरे से ही मन उद्विग्न था महाराष्ट्र के पालघर की घटना (जिसमें दो साधुओं और एक वाहन चालक की भीड़ ने पीट पीट कर हत्या कर दी थी) से। उस उद्विग्नता को और भी बढ़ा दिया महाभारत की घटना ने। क्रोध, विवशता, निराशा – सभी मन में उमड़ रहे हैं। समझ नहीं आ रहा कि वे भाव कैसे व्यक्त किये जायें।

कैसा जड़ समाज था। द्रोण जैसा ब्राह्मण चुप था। भीष्म जैसा वीर पुरुष विवश था। युधिष्ठिर को धर्मराज कैसे कहा गया? समझ नहीं आता।
कर्ण की दानवीरता का बखान बहुत होता है। पर जो नीचता उसने राजसभा में एक नारी का अपमान करते हुये दिखाई, उसके लिये कर्ण को याद क्यों नहीं किया जाता?
कर्ण की दानवीरता का बखान बहुत होता है। पर जो नीचता उसने राजसभा में एक नारी का अपमान करते हुये दिखाई, उसके लिये कर्ण को याद क्यों नहीं किया जाता? मुझे लगता है कर्ण जैसा मित्र नहीं होना चाहिये। वह एक उद्दण्ड सुरक्षा की भावना जगाता है दुर्योधन जैसे दुष्ट के मन में; और विनाश के रास्ते से वह अपने मित्र को रोकने का कोई प्रयास नहीं करता… वह एक राजमुकुट के अहसान के नीचे दबा हुआ दास ही नजर आया।
और धृतराष्ट्र आंख से ही नहीं, मन और बुद्धि से भी अंधे थे। लेकिन उस सभा में आंख, कान, मुंह वाले भी कायर और नपुंसक थे। द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर किसी के पास नहीं था। वे सब राजसिंहासन से चिपके हुये छद्म बुद्धिजीवी और छद्म आदर्शवादी थे।
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि मेरी पत्नीजी ने आदरणीय के एस सुदर्शन जी के कहे की याद से यह पोस्ट शुरू की। सुदर्शन जी श्री अरविंद में अगाध आस्था रखते थे। श्री अरविंद की तरह वे मानते थे कि भारत का एक बार पुनः अभ्युदय होगा। पहले से ज्यादा सशक्त। वे जितने बड़े विचारक थे, उससे ज्यादा सहज मानव थे। उनके श्री अरविंद आश्रम, रतलाम में उस भाषण का स्मरण कर बहुत सी यादें ताजा हो जाती है।
– ज्ञान दत्त पाण्डेय
गांधारी द्रौपदी को श्राप देने से रोकती है। गांधारी नकारात्मकता की जीती जागती पराकाष्ठा है। मेरा अपना मत है कि गांधारी का व्यवहार पतिव्रताधर्म नहीं कहा जाना चाहिये। पति में अगर कमी है तो पत्नी उसे पूर्णता प्रदान करती है। अंधे पति के साथ अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेना और अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लेना कोई धर्म नहीं है। अगर गांधारी आंख पर पट्टी न बांध कर अपने पुत्रों की ठीक से परवरिश करती तो महाभारत की कहानी कुछ और हो सकती थी।
शकुनि जैसे धूर्त का हस्तिनापुर में बने रहना गांधारी की मौन स्वीकृति के बिना नहीं हो सकता था।
लोग प्रश्न करते हैं कि कृष्ण अगर चाहते तो महाभारत का युद्ध रोक सकते थे। पर रोकना क्यों? ऐसा राजवंश, ऐसा समाज, ऐसे पाखण्डी “आदर्शवादी”, ऐसी राजसभा और ऐसे “वीरों” का अंत होना ही चाहिये था। और कृष्ण तो इनके ही नहीं, अपने उच्छृंखल और निरंकुश यदुवंशियों के भी नाश के निमित्त बने थे…

रीता पाण्डेय आज से इस ब्लॉग मानसिक हलचल पर अतिथि पोस्ट नहीं लिखेंगी। आज से उन्होने ब्लॉग के एक सह-लेखक बनने का रोल संभाल लिया है।
मेरे विचार में धृतराष्ट्र से बडा निकृष्ट कोई नहीं था उस दरबार में, क्यों कि बाकी सब का व्यक्तित्व तो प्रकट और परोक्ष समान था , उसने बार बार पांडु पुत्रों के साथ अन्याय किया, चाहे वह बंजर खांडव प्रदेश देकर बटवारा करना हो चाहे चौसर के समय पंचाली का अपमान करना हो , हद तब पार हो गई जब पुनः फिर धृतराष्ट्र ने इतनी घृणित घटना के बाद युधिष्ठिर को चौसर के लिए आदेश दिया । उसके बाद युधिष्ठिर ने अपने चौसर के नशे में वशीभूत होकर क्षत्रिय धर्म के पालन (युद्ध और चौसर की चुनौती को न ठुकराना)को जादा महत्व दिया लेकिन एक बडे भाई का और एक पति का धर्म क्या है उसको महत्व नहीं दिया ।
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सही!
सब समय की कठपुतलियां थे|
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