नन्हकी संतोषी जीव नहीं है। जो उसे मिलता है, उसे हमेशा कम बताती है। कुछ और या किसी और चीज की मांग करती है। जल्दी हिलती नहीं। हार कर उसे “कुछ और” दिया जाता है।
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भारतीय रेल का पूर्व विभागाध्यक्ष, अब साइकिल से चलता गाँव का निवासी। गंगा किनारे रहते हुए जीवन को नये नज़रिये से देखता हूँ। सत्तर की उम्र में भी सीखने और साझा करने की यात्रा जारी है।
नन्हकी संतोषी जीव नहीं है। जो उसे मिलता है, उसे हमेशा कम बताती है। कुछ और या किसी और चीज की मांग करती है। जल्दी हिलती नहीं। हार कर उसे “कुछ और” दिया जाता है।
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खर्चा कम हुआ। भागमभाग नहीं थी जिंदगी में। घर के हर एक मेम्बर में साफसफाई की आदत पड़ी। “मेरा तो मानना है कि हर साल कम से कम दस दिन का लॉकडाउन घोषित होना ही चाहिये।”
“यह नहीं हो सकता। इस जगत के जो सुख दुख हैं, वे हमें भोगने ही हैं। निर्लिप्त भाव से उन्हें इसी जगत में ही भोग कर खत्म कर दिया जाये, यही उत्तम है। अन्यथा वे अगले जन्म में आपका पीछा करेंगे। उन्हें आपको भोगना तो है ही।”