बिस्राम का बुढ़ापा

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Gadauli Dham गड़ौली धाम

वह लाठी टेकते आया था और खड़ंजे के अंत पर खड़ा था। एक टीशर्ट पहने जिसपर तिरंगा बना था और नीले रंग में अशोक चक्र भी। उसकी टी शर्ट और उम्र देख कर मैं रुक गया। बुढ़ापे से टीशर्ट मैच नहीं कर रही थी। मैंने कहा – “टीशर्ट बहुत अच्छी है। कहां से लिया?”

उसके चलने में ही लड़खड़ाहट नहीं थी, सुनने में भी दिक्कत थी। दो तीन बार उसने आँय आँय किया तो मैंने अपनी साइकिल रोक कर उसके पास जा कर पूछा। वह बोला – “ई त लड़िका लोग लियाइ रहें, बम्बई से।”

टीशर्ट पर बांयी ओर जेब की जगह लोगो बना था – शिवसेना युवा मण्डल, बोरीवली। उसका लड़का मुम्बई में काम करता है। वही ले कर आया था। दो और लड़के हैं जो पास के महराजगंज या औराई में, जहां काम मिलता है वहां मिस्त्री का या लेबर का काम करते हैं। अपनी उम्र उसने बताई – “सत्तर अस्सी होये।”

वह लाठी टेकते आया था और खड़ंजे के अंत पर खड़ा था। एक टीशर्ट पहने जिसपर तिरंगा बना था और नीले रंग में अशोक चक्र भी।

अपनी चालढाल से वह सत्तर का कम अस्सी का ज्यादा लगता था। या उससे भी अधिक उम्र वाला। उसने बताया कि जवानी में उसने सगड़ी चलाई, तांगा चलाया, मेहनत मजूरी की। अब वह कुछ करने लायक नहींं है। बस यहीं पचीस पचास कदम चलता है। फिर दिन भर खटिया पर पड़ा रहता है। उसकी बूढ़ा है – पत्नी। वही कुछ देखभाल करती है। बाकी, लड़के अपनी देखें वही बहुत है। कुछ बचत तो है नहीं कि काम चले। “बस ऐसे ही जिंदगी कट रही है।” उसने पीछे अपना खपरैल वाला घर दिखाया। वहींं पड़ा रहता है वह।

नाम बताया बिस्राम (विश्राम)। जीवन के चौथेपन में उसकी जिंदगी ठहर ही गयी है। नाम ही सार्थक हो रहा है। उसने बोला खाने पहनने को भी नहीं जुटता। कोई मदद भी नहीं करता। दो दिन पहले फलाने के यहां तेरही में कचौड़ी खा लिया तो दस्त बहुत हो रहा है। इस उम्र में तला भुना पचाने की जठराग्नि ही नहीं है उसमें। पर जो खाने को मिला, सो खा लिया। अब तकलीफ हो रही है।

बिस्राम, गांव अगियाबीर

वह गांव अगियाबीर है। वहां कोई दवाई की दुकान नहीं है अन्यथा मैंने वहीं से उसे दस्त रोकने की दवाई ला कर दे दी होती।


दो दिन पहले सुनील ओझा जी ने आसपास के गांवों के बीस तीस लोगों को बुलाया था। उनसे वे कह रहे थे कि वे गौगंगागौरीशंकर वाले स्थल पर रोज दोपहर में पांच सौ लोगों को भोजन कराने की योजना की सोच रखते हैं। वे चाहेंगे कि दिव्यांग, वृद्ध और बेसहारा लोगों को प्राथमिकता के आधार पर वहां भोजन मिले। बाकी अन्य लोग भी प्रसाद पायें। उनके लालवानी जी भोजन बनवाने का काम सम्भाल लेंगे पर उन्हे सेल्फलेस लोग चाहियें जो वितरण व्यवस्था की देख रेख कर सकें।

गौगंगागौरीशंकर प्रॉजेक्ट साइट पर महुआरी में मीटिंग किये थे सुनील ओझा और उनके साथ के लोग। बांये से दूसरी हैं संध्या दुबे और उनके बाद सुनील ओझा। इस जगह को वे अपना दफ्तर कहते हैं! :)

बिस्राम का घर उनके प्रॉजेक्ट स्थल से एक किलोमीटर दूर होगा। बिस्राम और उसकी बूढ़ा उनकी प्राथमिकता के आधार पर वहां पर भोजन पा सकेंगी। वे वृद्ध भी हैं और निराश्रित भी। पर बिस्राम जो एक पैर आगे बढ़ा कर दूसरा घसीट कर उसके बराबर में रखता, लाठी टेकता बमुश्किल 25-50 कदम चलता है; वह कैसे रोज गौगंगागौरीशंकर तक जा सकेगा?

दिव्यांग, वृद्ध और बेसहारा लोगों को भोजन मिलना कठिन है। बिस्राम जैसे को तो भोजन उसके पास ही ला कर देना होगा। ओझा जी को इस तरह के लोगों के लिये तो वैसे वालेण्टियर तलाशने होंगे जो स्विग्गी-जोमेटो की तर्ज पर साइकिल/मोटरसाइकिल पर ले कर सुपात्र को खाना बांट सकें।

गांव में ऐसे लोग मिलेंगे? ऐसे वालेण्टियर? मैं लोगों से पूछ्ता हूं तो जवाब मिलता है – “हेया देखअ साहेब; इहांं फ्री में कुच्छो मिले, भले जहर भी मिले; लोग लूटने को लाइन लगा देंगे। बाकी, इस तरह के काम के लिये कोई नहीं मिलेगा। जिन जिन ने सहयोग में हामी भरी है वे भी एक दिन आयेंगे। उसमें उनके फायदे का कुछ नजर आया थो थोड़े दिन और आयेंगे, नहीं तो किसी और को अपनी जगह आने को कह कर सटक लेंगे। सेवा भाव के लोग मिलना भूसे में सुई ढूंढने जैसा है।”

पर बिस्राम जैसे को भोजन मिलना चाहिये। मेरे गांव की बंसी की पतोहू शांति को भी भोजन मिलना चाहिये। उसके लिये ओझा जी को वालेण्टियर नहीं, पगार के मॉडल पर लोगों को जोड़ना होगा। पगार होगी तो कुछ निष्ठावान लोग आ भी सकते हैं। अन्यथा कठिन है। यहां तक कि बिना लाभ दिखे भाजपा के जवानों की फौज में भी नियमित कार्य करने वाले नहीं मिलेंगे। स्वयम सेवक संघ वाले एक दो “सिरफिरे जुनूनी लोग” मिल जायें तो अलग बात है।

मैं अपने यह लिखने पर सोचता हूं – दिक्कत तुम्हारे साथ यह है जीडी; तुम सोचते हो पर कर कुछ खास नहीं पाते। सुनील ओझा जी कुछ अनूठा और व्यापक करने वाले हैं और तुम्हें उस प्रकरण में निंदकों का कथन ही याद आ रहा है। :-(

यह ग्रामीण जीवन – इसमें बहुत कुछ अच्छा है। आबो हवा अच्छी है, पर भरा यह निंदकों, दोषदर्शकों और निठल्लों से है। ओझा जी को इनके बीच से अपनी राह बनानी है। सुनील ओझा आशावाद से लबालब नजर आते हैं। मैं भी गांव में आने के समय; छ साल पहले आदर्शवाद, आशावाद और अपने बचपन के नोश्टॉल्जिया से ओतप्रोत था। पर वह भाव कपूर की तरह हवा हो गया है। यह गौ-गंगा-गौरीशंकर शायद फिर से कुछ आदर्शवाद/आशावाद वापस ला सके। शायद; और यह बहुत बड़ा शायद है। बोल्ड फॉण्ट में और अण्डरलाइन कर लिखा जाने वाला। तुम मिसएन्त्रॉप (misanthrope – मानवद्वेषी) बन गये हो पण्डित ज्ञानदत्त!


देखता हूं, बिस्राम और उसकी बूढ़ा को नियमित भोजन मिल पाता है या नहीं!


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “बिस्राम का बुढ़ापा

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  3. सुरेश शुक्ल फेसबुक पेज पर –
    जीवन के यथार्थ हैं, जो अपने मरने पर ही स्वर्ग मिलता है की मानिंद ही चलते हैं।

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  4. शेखर व्यास, फेसबुक पेज पर –
    🙏🏻 यद्धपि बहुत सी जगह समाज सेवक ऐसी योजनाएं संचालित कर रहे है जिनमे चलने में असमर्थ वृद्ध निराश्रित को उनके स्थान पर भोजन यथा समय उपलब्ध हो जाए ,किंतु आर्थिक सहायता के बाद सबसे बड़ा योगदान निस्वार्थ कार्यकर्ताओं का ही रहता है जिनकी उपलब्धता आपके क्षेत्र में “बहुत बड़ा ? ” है

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