मेरी रेलवे की यादों को कुरेदती फिल्म भुवन शोम


मैं अपने तनाव, शरीर और मन की उपेक्षा और रोज रोज की चिख चिख से अपने को असम्पृक्त नहीं कर सका। अगर वह सीख लेता – और उसके प्रति सचेत रहता – तो आज कहीं बेहतर शारीरिक/मानसिक दशा में होता।

सवेरे तीन बजे उठ जाना


मैंने रेल जीवन या रेल यात्राओं के बारे में बहुत नहीं लिखा। पर वह बहुत शानदार और लम्बा युग था। जब मैंने अपने जूते उतारे तो यह सोचा कि यादों में नहीं जियूंगा। आगे की उड़ान भरूंगा गांव के परिदृष्य में। पर अब, आज सवेरे इकतीस दिसम्बर के दिन लगता है कि फ्लैश-बैक में भी कभी कभी झांक लेना चाहिये।

सतर्क रेल कर्मी, बसंत चाभीवाला


आठ किलोमीटर की पेट्रोलिंग करता है बसंत रोज। उसके कंधे पर जो औजार और फ्लैग पोस्ट होता है, उसका वजन आठ-दस किलो होता है। सवेरे सवेरे, भोर की वेला में सर्दी-गर्मी-बरसात झेलता उस वजन के साथ रेल पटरी-गिट्टी पर चलता है बसंत। निगाहें पटरी की दशा और चाभियों की कसावट पर रखनी होती है। … आजकल सेना के जवानों का प्रशस्ति गायन फैशन में हैं। पर बसंत चाभीवाले की नौकरी कौन कम साधुवाद की है?!

Design a site like this with WordPress.com
Get started