रीता पाण्डेय (मेरी पत्नीजी) कोरोनावायरस के लॉकडाउन समय में नित्य एक – दो पन्ने लिख रही हैं। किसी भी विषय में। शायद रोज लिखना ही ध्येय है। भला हो इस कोविड19 के कठिन समय का कि यह लेखन हो रहा है। मेरे जिम्मे उस लेखन को टाइप कर ब्लॉग में प्रस्तुत करने का काम रहता है। वह करने में भी एक आनंद है।
प्रस्तुत है, रीता पाण्डेय की आज की पोस्ट –
पति के रिटायरमेंट के बाद, अगले ही दिन, हमारे रहने की जगह बदल गयी। घर में उनकी दिनचर्या में बहुत बदलाव आया। पर मेरी दिनचर्या लगभग वैसी ही रही। आखिर, मैं तो रिटायर हुई नहीं थी; और होना भी नहीं चाहती।
अभी भी (रेलवे के बंगलों की तरह) मेरे घर का परिसर काफी बड़ा है। आजकल कोरोनावायरस के लॉकडाउन के समय में उसी परिसर में मेरी यात्रा होती है। सुबह की चाय का ट्रे बाहर बराम्दे में रखने के बाद जब नजर घुमाती हूं तो लाल गुड़हल के फूल आमंत्रित करते हैं। कुछ फूल भगवान के चरणों में समर्पित करने के लिये रख लिये जाते हैं तो कुछ डाल पर मुस्कराने के लिये छोड़ दिये जाते हैं।

उसके पास बोगनबेलिया है। श्रीमाँ ने उनका नामकरण किया था – डिवाइन प्रोटेक्शन। अचानक अमरूद पर नजर जाती है। दो साल पहले लगाया था। तेजी से बढ़ा है पौधा। पिछली साल दो बार फल दिये थे। अभी उसमें फिर फूल खिलने की तैयारी हो रही है।

अमरूद की तरफ ही पपीता है। वह भी फल देता रहा है और देने को तैयार हो रहा है। कलमी आम के वृक्ष तो कई हैं पूरे परिसर में। दो-तीन साल पहले लगाये गये। उनकी ऊंचाई ज्यादा नहीं बढ़ेगी। पर उनपर भी बौर आये हैं और अब टिकोरे लग रहे हैं। सामने की क्यारियों में कोचिया कुछ उदास करते हैं, पर उन्ही के साथ गमलों में लगाये कोचिया स्वस्थ हैं। उन्हे देख प्रसन्नता होती है। चम्पा के पत्ते तो पूरी तरह झड़ चुके हैं। अब उनका कलेवर बदल रहा है।

फागुन से पीला गुड़हल भी खिलने लगा। गुलाब तो अपने शवाब पर है! हल्का गुलाबी अमेरिकन गुड़हल पर भी कलियां लगने लगी हैं।
पीले अलमण्डा की बेल ऊपर तक चली गयी है। अचानक नजर गयी तो उसकी फुनगी पर कुछ फूल भी नजर आये। इस बार भयानक बारिश और उसके बाद कड़ाके की लम्बी चली सर्दी में कई पौधे गल-मर गये। ऐसा लगा कि कई पौधे नर्सरी से लाकर फिर से लगाने पड़ेंगे। पर पाया है कि अपराजिता फिर से हरियरा गयी है और झुलसी तुलसी में नये पत्ते आ गये हैं।

घर के पीछे की ओर भी कई पौधे हैं। कई बेलें। वहां एक लीची का पौधा भी लगाया है। गंगा के इस इलाके में चलेगा या नहीं, अभी देखना बाकी है। नीबू का झाड़ हरा भरा है। उसमें कई फूल लगे पर फल लगने के पहले ही झर गये। शायद अगले सीजन में लगें, जब झाड़ और बड़ा हो जायेगा। दिया तो गंधराज कह कर दिया था नर्सरी वाले नें। देखें, क्या निकलता है!
नीम के किशोर वृक्ष हर तरफ हैं। उनके सारे पत्ते झर चुके हैं और नये आ रहे हैं। कुछ ही दिनों में ये हरे भरे हो जायेंगे। केले का एक गाछ है। पिछली बार उनके पेड़ पर प्राकृतिक तरीके से पके केलों का स्वाद ही निराला था। और फल कई दिन रखने पर सड़े-गले नहीं थे।

घर के पीछे एक नल है। नौकरानियों के लिये एक प्रकार का पनघट। वे यहां हाथ पांव धोने, नहाने, कपड़ा कचारने, नाश्ता-भोजन करने और बतकही/पंचायत के लिये आती हैं। आजकल यह कोरोनावायरस के लॉकडाउन के कारण वीरान जगह है। इस जगह पर अब बर्तन भर मांजे-धोये जा रहे हैं।
इसी नल के पास एक पारिजात – हारसिंगार – का वृक्ष है। उसकी बगल में चार साल की उम्र का पलाश। पलाश के फूल इस साल देर से आये हैं। हमारे इस पलाश में तो पहली बार ही आये हैं। अभी नया नया पेड़ बना है ये पलाश।

घर की इस यात्रा में और भी छोटे मोटे पड़ाव हैं। पीछे चारदीवारी में खेत की ओर जाने का एक छोटा गेट है, जिससे गेंहू का खेत दिखता है। उसके आगे सागौन के पेड़ हैं। घर के ऊपर – दूसरी मंजिल के ऊपर सोलर पैनल है। वहां खड़े हो कर गांव का हराभरा दृष्य बहुत सुंदर लगता है।
घर के पोर्टिको में गमले हैं। उनमें लगे पौधे अपनी आवश्यकता अनुसार मुझे बुलाते रहते हैं। किसी को पानी चाहिये होता है, किसी को धूप या किसी को छाया। कोई कोई तो मानो बात करने के लिये ही बुलाता है। वे हरे भरे होते हैं तो मन प्रसन्न होता है। कोई बीमार हो जाता है तो मन खिन्न होता है। बिल्कुल किसी परिवार के सदस्य की दशा देख कर।
घर में अपने पति समेत बहुत से बच्चों को पालती हूं मैं। ये पेड़-पौधे-गमले मेरे बच्चे सरीखे ही हैं। ये सब मिलकर इस घर को एक आश्रम का सा दृष्य प्रदान करते हैं। बस, हम अपनी सोच ऋषियों की तरह बना लें तो यहीं स्वर्ग है!

महानगर से बहुत कुछ मिला है पर जो खोया वो भी काम नहीं! सबसे बड़ा नुक्सान है जमीन पर रहने का अवसर न मिलना! फिर बचपन के बंगलों की याद आती है जो पापा के प्रमोशन के साथ छोटे से बड़े होते गए पर रहे हमेशा जमीन पर ! आगे लॉन और पीछे किचेन गार्डन! पर शादी होने के बाद से पहले दिल्ली और अब मुंबई ने सब भुला दिया। पहले महोत्साह से गमलों में बागबानी शुरू की पर बिल्डिंग के ढेरों कायदे कानून के चलते वो भी समेट लिया। रिटायरमेंट के बाद किसी ऐसी जगह जायेंगे जहाँ बागबानी करने को मिले, ऐसी हसरत दिल में है पर ऐसी जगह मिलेगी? शरीर साथ देगा? फिलहाल तो आपकी पोस्ट्स पढ़ कर मजा ले रहे हैं!!
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सुन्दर विवरण रहा। हमने भी आपके घर की यात्रा कर ली और इतने सारे पेड़ पौधों के नाम भी जान लिए। वरना शहर में रहते रहते पेड़ पौधों के नाम ही भूल चुका था। ऐसी कड़ियों का इन्तजार रहेगा।
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कंक्रीट के जंगल में सांस लेने मुश्किल होता है । इन चहारदीवारी के बीच विवेक खो गया है, आत्मा पंगु हो गया है और विचार असंगत हो उठे है । प्रकृति का साथ छोड़ना अपना रंग दिखा रहा है और आत्मा को नीरसता ने घेर रखा है । ना ही कुएं का पनघट है, ना ही पड़ोस की बबलू की मां, ना ही गांव के किनारे की कुटी ना ही घर का पिछवाड़ा जहां चंद मिनट की बात से पूरा बोझ हल्का हो जाता है । अब तो घर के दुआर की बैठक सूनी है और डॉक्टर के डिस्पेंसरी भरे पड़े है ।
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ये अच्छी बात लगी कि ‘ सर ‘ को भी आपने बच्चों की श्रेणी में रख लिया है (अर्थात 100 गलती माफ)!
यू ट्यूब पर बागवानी सम्बंधित वीडियो में यह बताया जा रहा है कि नीबू के पौधे पर जब फूल लगने शुरू हों तो उनमें पानी बहुत कम (10 से 15 दिन में एक बार) डालना चाहिए जिससे फूल/फल झड़ेंगे नहीं-कहीं पानी की मात्रा अधिक तो नहीं हो गई –
रमेश चन्द्र श्रीवास्तव
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सही में एकदम आश्रम जैसे ही है आपका निवास, इतना हरा-भरा परिसर मन को आनंदित कर देता होगा, हाँ देखभाल भी करना पड़ता होगा 😇🙏
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