रघुनाथ पांड़े और धर्मराज के दूत

जिस तरह से बताते हैं अपने बचपन की बातें; उसके अनुसार रघुनाथ पांड़े जी सन 1927 के आसपास की पैदाइश होंगे। अब नब्बे पार की उम्र। उस उम्र के हिसाब से पूरी तरह टनमन हैं। घर में, आसपास और सौ दो सौ मीटर के दायरे में खूब घूमते मिलते हैं। बोलते हैं कि आंख से कम दिखता है। पर उनके पुत्र गुन्नीलाल जी आंख टेस्ट करवा कर डेढ़ हजार का चश्मा ले आये तो वह इस्तेमाल नहीं करते। चश्मा से उलझन होती है। धुँधला ही सही, सब देख लेते हैं।

कहते हैं कि कान से सुनाई कम देता है; पर बकौल गुन्नी पांड़े; अपने काम की हर बात सुन लेते हैं।

रघुनाथ पाण्डेय जी

हर बार मिलने पर चहुचक मिलते हैं, इधर उधर की सब बातेँ प्रेम से करते हैं। पर उनका हालचाल पूछने पर लटक जाते हैं। “हाल त ठीक नाहीं बा। हमार जियई घबरात रहथअ। अब न जियब। (हाल ठीक नहीं है, मेरा जी घबराता है। अब नहीं जियूंगा)” उन्हे ऐसा कहते तीन चार साल से देख रहा हूं। एक आध बार उनकी तबियत उन्नीस बीस हुई है, पर बाउंस बैक कर गये हैं।

“मोट क रहा। माने हृष्टपुष्ट। उज्जर कपड़ा पहिरे रहा। गोर रहा। करिया भुजंग नाहीं। हम त जचकि गये। गोहरावा – के आ हो! बोले पर पराइ गवा। दूर से ताकत रहा। ”।

पं. रघुनाथ पांड़े

अभी चलेंगे पण्डित रघुनाथ पाण्डेय!

तीन दिन पहले उनके घर गया तो सवेरे के नौ बज चुके थे। वे सवेरे का भोजन कर धूप सेंक रहे थे घर के सामने नीम के नीचे खटिया पर बैठे हुये। आज का नया आख्यान यह था कि धर्म राज का दूत आया था। “मोट क रहा। माने हृष्टपुष्ट। उज्जर कपड़ा पहिरे रहा। गोर रहा। करिया भुजंग नाहीं। हम त जचकि गये। गोहरावा – के आ हो! बोले पर पराइ गवा। दूर से ताकत रहा। (मोटा था, माने तंदुरुस्त्। सफेद कपड़े पहने था और गौरवर्ण था। मैंने अचकचा कर पूछा तो दूर चला गया और दूर से मुझे देखता रहा।)”।

पता नहीं, वैसे धुँधला दिखता है पर उस दूत की तंदुरूस्ती और उजले कपड़े पहनना और दूर से इनको निहारना – यह सब स्पष्ट देख पाए पंडित रघुनाथ पांड़े!


साढ़े तीन साल पहले रघुनाथ पाण्ड़ेय जी पर लिखी पोस्ट – अगियाबीर के रघुनाथ पांड़े जी


उम्र बढ़ने के साथ साथ उन्हे मृत्यु के हेल्यूसिनेशन होने लगे हैं। गुन्नीलाल जी का कहना है कि उनका और सब ठीक है, पर सोचने में नकारात्मकता बहुत हो गयी है। घर से कोई भी बाहर जाता है तो परेशान होने लगते हैं। कल्पना करते हैं कि उसके साथ कोई दुर्घटना न हो गयी हो। उसका किसी ने अपहरण न कर लिया हो। उससे किसी ने छिनैती न कर ली हो।

मेरे मुंह के पास अपना चेहरा ला कर वे मुझसे बताते हैं – “ई जरूर रहा कि ऊ धर्मराज क दूत रहा।”

मेरे मुंह के पास अपना चेहरा ला कर वे मुझसे बताते हैं – “ई जरूर बा कि ऊ धर्मराज क दूत रहा।” उनके अनुसार जब स्वर्ग ले जाने वाले दूत आते हैं तो वे सफेद कपड़े में और गौर वर्ण के होते हैं। यमराज के दूत काले, मोटे और बदसूरत होते हैं। ऐसा उन्होने (अपने भाई की स्मृति में पण्डित द्वारा कहे) गरुड़ पुराण में सुना था। उन्हे लेने आया दूत धर्मराज का ही था।

याददाश्त ठीक है रघुनाथ पांड़े जी की। यह उन्हे याद है कि मैं उनके घर बहुत दिनों बाद आया हूं। मेरे साथ आने वाले (राजन भाई) नहीं आये? वे पूछते हैं। राजन और राजन के छोटे भाई बच्चा दूबे की भी याद करते हैं। उनका सब कुछ चहुचक है; बस उम्र बढ़ने का भय और नकारात्मकता घर कर गयी है। उनका हम उम्र कोई बोलने बतियाने को होता तो शायद ठीक रहता।

ऐसा नहीं है कि रघुनाथ पांड़े जी अभी मृत्यु की सोचने लगे हैं। पिछ्ले साढ़े तीन साल से तो मैं देखता/सुनता ही रहा हूं उनका यह मृत्यु-पुराण। एक पोस्ट और फेसबुक नोट्स पर है इस विषय में। देर सबेर उसे भी ब्लॉग पर सहेजूंगा। फेसबुक की “कांइया” नीति ने फेसबुक नोट्स गायब जो कर दिये हैं! :-D

गुन्नी पांड़े मेरा और मेरे साथ गये मेरे बेटे का अतिथि (अतिथि ही था मैं – बिना किसी प्रयोजन के, बटोही का हेण्डल उनके घर की ओर घूम जाने के कारण ही उनके यहां पंहुचा था) सत्कार किया। मटर की पूड़ी-तरकारी; जो सर्दियों का इस इलाके में प्रिय नाश्ता है; कराया और चलते चलते अपनी दालान की दीवार पर लटकी एक लौकी भी मुझे साथ ले जाने को दी। इसके समतुल्य आवाभगत की शहर में कोई कल्पना नहीं कर सकता।

गुन्नीलाल पाण्डेय जी मेरे लिये लौकी तोड़ते हुये। पास का पूरा खेत नीलगाय का झुण्ड चर गया है।

गुन्नीलाल जी ने लौकी तोड़ते हुये मुझे पास के अपने खेत को दिखाया। रात में घणरोज (नीलगाय, जो अगियाबीर के टीले पर बड़े झुण्ड में रहते हैं) पूरी तरह चर गये हैं। उनकी लौकी की बेल भी जितनी जमीन पर थी उसे या तो चर गये या पैरों से रौंद गये हैं। इस नुक्सान को वे बहुत स्थितप्रज्ञ भाव से मुझे बताये। “अब ठण्ड की रात में जाग जाग कर उन्हें भगाना मेरे बस में नहीं है। उफरि परईं सरये (भाड़ में जायें वे)।”

गुन्नी पांड़े के घर से लौटते समय मैं पण्डित रघुनाथ पाण्डे और धर्मराज के दूत की सोचता रहा। दूर दूर तक मुझे कोई हृष्टपुष्ट और सफेद कपड़े पहने नजर नहीं आया। कहां गया होगा वह दूत। ऐसे दूतों के ट्रेवलॉग पर कोई क्लासिक पुस्तक है क्या?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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