काम मेहनत का है। उसके हिसाब से 3-4सौ (गांव का रेट देखते हुये) न कम है न ज्यादा। जो गांव में रहना चाहते हैं, वे इसको पसंद करेंगे; वर्ना अवसर देख कर महानगर का रुख करेंगे। मजदूर गांव और महानगर के बीच फ्लिप-फ्लॉप करते रहते हैं।
शाम के साढ़े पांच बजे थे। मैं गंगा तट की ओर जा रहा था। बहुत से बालू के लदे ट्रेक्टर-ट्रॉली दूसरी ओर से आ रहे थे। तीन-चार किलोमीटर की यात्रा में एक…दो…तीन…चार ट्रेक्टर बालू लदे आते दिखे। गांव की पतली सड़क, उसपर अगर ट्रेक्टर आ रहा हो तो अपनी कार, भले ही वह सबसे छोटे आकार की कार हो, रोकनी पड़ती है। आने जाने वाले दो वाहनों को गुजरने का मार्ग ही नहीं है वह।
कार तो क्या कभी कभी साइकिल पर भी दूसरी ओर से गुजरूं तो साईकिल रोकनी पड़ती है। इसमें पहले बुरा लगता था और बालू या मिट्टी वहन को तुरंत पर्यावरण खराब करने की बात से जोड़ कर अपने रुकने की बुड़बुड़ाहट को एक तर्क का जामा पहनाया करता था। पर अब उस सब की आदत पड़ गयी है। लोगों के पास आमदनी का यही जरीया है। शॉर्टकट। अपने खेत की मिट्टी बेचना या गंगा की बालू बेचना आसान तरीका है कमाई का। इससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। वर्ना आजकल रोजगार का जो हाल है, सो है। लोग हलकान हो कर कूद कर बम्बई जाते हैं पर वहां भी बारिश के मौसम में कौन रोजगार मिल रहा है?
जब कार रुकी है तो मैं चौथे ट्रेक्टर का चित्र खींचता हूं – पीछे की सीट पर बैठे बैठे। शाम हो गयी है। पता नहीं गंगा तट पर कब तक बालू का लदान चलेगा?!

घाट पर पंहुच कर देखता हूं कि आज का काम खत्म हो गया है। नाव से जमीन पर और जमीन से ट्रेक्टर में बालू का यानांतरण करने वाले मजदूर अपने अपने बेलचे रख चुके हैं। कुछ घर जाने की तैयारी में गंगाजी में हाथ मुंह धो चुके हैं। कुछ नहा भी लिये हैं। या अधिकांश स्नान कर लिये हैं। उसके बाद अपने अपने दोपहर के भोजन के बर्तनों की पोटलियां या तीन-चार खाने वाले डिब्बे ले कर घर लौट रहे हैं। ये सभी आसपास के गांवों के लोग हैं। द्वारिकापुर, कोलाहलपुर, अगियाबीर और करहर के। एक व्यक्ति से मैं पूछता हूं – कितना मिलता है दिहाड़ी?
“दिहाड़ी नहीं मिलता गुरू जी। काम के हिसाब से मिलता है। काम का नापतौल करने वाले जितना ट्रेक्टर लदान किया उसके हिसाब से पैसा देते हैं।” लगभग ऐसा ही सिस्टम भट्ठा मजदूरों का पेमेण्ट का देखा है मैंने। कितनी ईंट उन्होने ढोई, उसके हिसाब से पैसा मिलता है। वह व्यक्ति मुझे बॉटमलाइन बताता है – “तीन चार सौ तक मिल जाता है।”

काम मेहनत का है। उसके हिसाब से 3-4सौ (गांव का रेट देखते हुये) न कम है न ज्यादा। जो गांव में रहना चाहते हैं, वे इसको पसंद करेंगे; वर्ना अवसर देख कर महानगर का रुख करेंगे। मजदूर गांव और महानगर के बीच फ्लिप-फ्लॉप करते रहते हैं। कूद कर बम्बई जाते हैं और फिर हल्के से ट्रिगर पर, किसी तीज-त्यौहार-शादी-मरन पर घर आने की सोचते हैं।
अभी राजेश मुझे उस दिन फोन कर रहा था। छ महीना पहले यहाँ बालू का लदान कर रहा था। अब बम्बई में है। “काम नहीं है गुरूजी बम्बई में भी। बारिश के टाइम में सब ठप है। घर लौटना है पर टिकट ही नहीं मिल पा रहा। अब देखता हूं, नहीं मिला टिकट तो बिना टिकट लौटूंगा।”
राजेश वहां से यहां आयेगा, भले ही डब्ल्यू.टी.। और यहां हैं कई जो बम्बई जाने के मंसूबे बना रहे हैं। उत्तरप्रदेश सरकार विकास कर यहीं बम्बई बनाने के सपने बेच रही है। पर जैसे जैसे चुनाव आयेंगे, इस सपने की बजाय भाजपा या अन्य सभी दल जातिगत/धर्मगत पोलराइजेशन पर ही चुनाव लड़ेंगे।
यहां न खेती का स्वरूप बदलेगा, न कोई इण्डस्ट्री आयेगी। रंगदारों के खिलाफ सरकार वाहन पलटा रही है, पर रंगदार मरे पर रंगदार पैदा होते हैं। रंगदारी रक्तबीजों का प्रदेश है पूर्वांचल।

चार पांच नावें आज का काम खत्म कर गंगा किनारे पार्क हो गयी हैं। एक नाव अपने डीजल इंजन का आवाज सुनाती किनारे लग रही है। एक और नाव वाला किनारे नाव लगा कर कह रहा है कि अभी आज का पैसा बंटा नहीं। जैसे मजदूर का पेमेण्ट है वैसे ही फेरा के हिसाब से नाव का भी पेमेण्ट करता है ठेकेदार। नावें नदी के उसपार से इसपार बालू ढो कर लाती हैं।

बारिश का मौसम है। बालू खूब गीली आती है। अधिकतर नावें बांस की खपच्ची लगा कर एक कमरा नुमा स्थान बनाये हुये हैं। ऊपर पॉलीथीन या तिरपाल लगा है। मन होता है ऐसी किसी नाव में रात गुजारी जाये। पता नहीं गंगा किनारे अकेले में रात में सांय सांंय हवा की आवाज के साथ नाव के आसपास चुडैल-भूत-पिशाच न आते हों। पास में ही चईलहवा घाट (श्मशान घाट) भी है। … एक दो और लोग साथ रहें तो रुका जाये। यहीं बाटी-चोखा लगे! 🙂

बारिश के मौसम में बालू का काम कम होता है। नवरात्रि बाद जोर पकड़ेगा। अभी घाट पर दो नावें उलटी लिटाई गयी हैं। उनका वार्षिक रखरखाव का काम हो रहा है। सड़ी लकड़ी और जंग लगा लोहा बदल कर उनका जीवन बढ़ाया जायेगा। रेलवे की भाषा में कहूं तो ए.ओ.एच. हो रहा है – Annual Over Haul.

करीब पंद्रह मिनट का गंगा तट का भ्रमण और इतनी खोज खबर ले लेता हूं। यह सब मौज के लिये कर रहा हूं। किसी अखबार में या किसी चैनल वैनल में होता तो कुछ कमाई भी हो जाती। पर वह सब का शऊर ही भगवान तुम्हें नहीं दिये जीडी। वह तो कृपा की कि रेलवे की अफसरी दे दिये। वर्ना बिलाला घूमते। तब यहां फोटो खींचने कार में चढ़ कर थोड़े ही आते! 🙂
मेरा ड्राइवर मेरे खब्तीपने पर कुलबुला रहा है। सोच रहा है कि जल्दी घर लौटूं तो वह कार खड़ी कर अपने घर जाये। मुझे घर लौटने की जल्दी नहीं है, पर उसे है। वह मेरे आगे पीछे घूम रहा है।
घर वापस लौटता हूं मैं। आज इतना बहुत है!

नावकंकाल तो पहली बार देखा। परदेश सुहावना लगता है, बातों में। अन्त में याद अपने घर की ही आती है। जायें सब पर ज्ञान और कौशल लेकर घर में ही मुम्बई बनायें।
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नाव कंकाल पुनर्नवा होगा. एक ही माह में बालू ढोने के लिए तैयार हो जाएगा.
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ता नहीं गंगा किनारे अकेले में रात में सांय सांंय हवा की आवाज के साथ नाव के आसपास चुडैल-भूत-पिशाच न आते हों। 🙂 🙂
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