व्यंगकारोँ की टोली की बढ़ती जनसंख्या का खतरा :-)



जब से शिवकुमार मिश्र की सेतुसमुद्रम पर चिठ्ठी वाली पोस्ट चमकी है, तबसे हमें अपनी दुकानदारी पर खतरा लगने लगा है. उस पोस्ट पर आलोक पुराणिक ने टिप्पणी कर कह ही दिया है कि व्यंगकारों की ***टोली में जन संख्या बढ़ रही है और शिवकुमार को हमारे कुसंग से प्रभावित नहीं होना चाहिये.

शिवकुमार मिश्र ने हमारा ज्वाइण्ट ब्लॉग वैसे ही 90% हथिया लिया है – अब मन हो रहा है कि एक दिन चुपके से उसका नाम “शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग” कर दें [ 🙂 ]. शिवकुमार ने फोटो-सोटो लगाने का जिम्मा अभी मुझे दे रखा है. वह तो शायद मेरे ही पास रहे. पर कुल मिला कर हमें लग रहा है कि हमारी ब्लॉगरी खतरे में है. हमसे बाद में आये ब्लॉगर हमसे आगे निकल गये हैं. सुकुल ने जब नामवर सिन्ह का नाम लेकर अपनी व्यथा बयान की थी तब मुझे कष्ट का अहसास नहीं था, अब वह पूरी गम्भीरता से महसूस कर रहा हूं. 🙂

सुकुल जैसे तो फिर भी मस्त (या अंग्रेजी का सुपरलेटिव प्रयोग करें तो मस्तेस्ट) लिखते हैं. उनके जोड़ीदार जीतेद्र चौधरी भी एफर्टलेसली गदर ब्राण्ड पोस्ट ठोक कर मारते हैँ बाउण्डरी के पार. समीर लाल जी का तो ब्लॉग छपने पर टिप्पणियों को अर्पित करने वालों की लाइन लगी रहती है. सो मित्रों, उन जैसे रीयल सीनियर ब्लॉगरों को रीयल खतरा नहीं है.

Good friends, good books and a sleepy conscience: this is the ideal life.
Mark Twain

खतरा प्रतीक पांड़े को भी नहीं है. वो तो मजे में सोते हैं (?) और यदाकदा उठकर अथर्ववेद की कोई ऑब्स्क्योर (obscure) सी ऋचा पकड़कर चुनमुनिया पोस्ट लिख मारते हैँ. खतरा अज़दक जैसों को भी नहीं है जो दिन में कई-कई बार मुखारी कर पॉपकार्न की तरह पोस्टें फुटफुटाते रहते हैं. खतरा सिर्फ हमें है. हमने जबरी सवेरे सवेरे पोस्ट ठेलने का नियम बना लिया है. उसका उल्लंघन करें तो पुराणिक या संजीत के एक दो ई-मेल या फुरसतिया सुकुल का फोन आ जाता है कि तबियत तो ठीक है!? तबियत की देखें या पोस्ट की क्वालिटी को. दर्द हिन्दुस्तानी वैसे भी बता चुके हैं कि हमारे रोज रोज लिखने का मतलब यूंही छाप लेखन हो जाता है. (यह अलग बात है कि ब्लॉग अगर बहुत सेंसिबल लेखन का माध्यम होता तो हम इस ओर रुख ही क्यों करते?)

एक अनिल रघुराज हैं – जो बुद्धिमानी भरी हिन्दुस्तानी की डायरी लिखते हैं. पर उनके साथ हमारी समस्या सेंसिबल टिप्पणी (वह भी रोज-रोज और कभी दिन में दो बार) उनके ब्लॉग पर करने की है. लगभग यही समस्या यूनुस के साथ है. उनके प्रस्तुत गानों पर टिप्पणी करने से पहले बाकी लोगों की टिप्पणी पढ़नी पड़ती हैं, जिससे समझ आ जाये कि कैसा लिखना है टिप्पणी में.

खैर, असली प्रॉबलम व्यंगकारों की ***टोली से है. यह हमने समझ लिया है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में जो ज्यादा बिकता है, वह व्यंग ही है. किसी को हिट होना हो तो मस्त व्यंग लिखना ही होगा. अब देखिये हमें तो बहुत समय बाद समझ में आया पर नीरज गोस्वामी तो तीन गज़ल ठोकने के बाद ही “मैं हूं डॉन” वाला शुद्ध मुम्बइया-हिन्दी में सटायर लिख गये.

हमारे लिये सतत व्यंग में स्थितप्रज्ञ रहना कठिन है. दफ्तर में काम के जो झमेले हैं वे विकट करुणा पैदा करते हैं. करुणा न भी हो तो उच्चाटन एक स्थाई भाव की तरह जुड़ा रहता है. ऐसे में व्यंगकारों की ***टोली की मेम्बरशिप कैसे पायी जाये – यह समझ नहीं आता.

कुल मिला कर ब्लॉगरी करना उत्तरोत्तर कठिन लग रहा है. (यह कहने का शुद्ध हिन्दी में अर्थ होता है कि एक टिप्पणी का सवाल है भैया!)


बरखा बिगत सरद रितु आई



मित्रों; वह समय आ गया जिसका ६ महीने से इन्तजार था. गरमी की घमौरियां और फिर वर्षा ऋतु की चिपचिपाहट गयी. अब मौसम आ गया है सवेरे की सैर, विभिन्न प्रकार की सब्जियां-फल-पकवान सेवन का. लोई-कम्बल-रजाई में उत्तरोत्तर प्रोमोट होने का. मस्त पाचन क्षमता का प्रयोग करते हुये भी शारीरिक वजन कम करने के लक्ष्य को सार्थकता से चेज करने का. झिन्चक!

हम तो ये छ महीना जीते हैं और बाकी छ महीना इन छ महीनों का इन्तजार करते है. इन महीनों में भी कभी-कभी अस्थमा-सर्दी-जुकाम-बुखार दबेरते हैं. पर कुल मिला कर आनन्ददायक रहता है यह समय. पश्चिमी देशों की प्रोडक्टिविटी का राज ही शायद यह सर्द मौसम होता है.

Gyan(019) राजा रामचंद्र ने भी ऑपरेशन लंका इसी मौसम में प्रारम्भ किया था. वानर भालू भी वर्षा में परेशान रहे होंगे. भोजन जुटाना ही टफ रहा होगा. मौसम बदलने पर जोश भी आया होगा और लॉजिस्टिक्स की समस्यायें भी कम हुई होंगी. जब भगवान भी बड़े एक्स्पीडीशन के लिये शिशिर-शरद का इन्तजार करते हैं तो हम जैसे मर्त्य मानवों के लिये तो वह बहुत उपयुक्त हो जाता है. स्वामी शिवानंद अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि सर्दियों का प्रयोग हमें स्वास्थ्य सुधारने और आत्मिक उन्नति के लिये करना चाहिये.

Gyan(018)कल मैने महीनों बाद घर की छत पर चढ़ कर घर से सटी टण्डन बगिया (रमबगिया) का अवलोकन किया. मेरे घर की दीवार और गंगाजी के बीच यह हरी पट्टी है. यहीं पर महल(अशोक कुमार, मीना कुमारी) फिल्म की पचास के दशक में शूटिंग हुई थी. आजकल उसका रख रखाव बढ़िया नहीं है. पर पेड़ हरे पत्तों से लहलहा रहे है. मेरे घर के छोटे से बगीचे में भी गुलमेंहदी पूरे यौवन में फूली है. सभी पौधे मगन हैं. आने वाले नवरात्र पर्व की प्रतीक्षा में सज गये हैं. दफ्तर जाते हुये कहीं-कहीं कास फूली दीखती है. सफेद झक्क. वर्षा ऋतु के अवसान को घोषित करती हुई.

फूले कास सकल महि छाई, जनु वर्षा कृत प्रगट बुढ़ाई।  Gyan(001)

बानर सेना ने तो वर्षा के अवसान पर लंका विजय का अभियान सिद्ध कर लिया था. पता नहीं ब्लॉगर सेना क्या कर सकती है इस मौसम में. बानर हों या ब्लॉगर – असली अन्तर तो शायद राम के माध्यम से आता है. उनका तो अस्तित्व ही आजकल रीडिफाइन हो रहा है. अत: लगता नहीं कि इस साल कोई बहुत जबरदस्त काम होगा. पर जो भी हो, सामुहिक न सही, वैयक्तिक स्तर पर ब्लॉगर लोग उत्कृष्टता के दर्शन करा ही रहे हैं. शरद ऋतु में शायद वे और ऊंचाइयां छुयें.

ब्लॉगरी की उत्कृष्टता कालजयी बना सकती हो; यह मुगालता तो मन में नहीं है हमारे; पर अगले ६ महीनों मे उसे सर्वाधिक तो नहीं, प्राथमिकता अवश्य दी है. प्रयोग धर्मिता जीवित रहेगी – यह आशा है.


इण्डियन कॉफी हाउस – बीते जमाने की वर्तमान कड़ी



कई दिन से मुझे लगा कि सिविल लाइंस में कॉफी हाउस देखा जाये. मेरे साथी श्री उपेन्द्र कुमार सिंह ने इलाहाबाद में दोसा रिसर्च कर पाया था कि सबसे कॉस्ट-इफेक्टिव दोसा कॉफी हाऊस में ही मिलता है. अफसरी में पहला विकल्प यह नजर आता है कि “चपरासी पैक करा कर ले आयेगा क्या?” फिर यह लगा कि पैक करा कर लाया दोसा दफ्तर लाते-लाते मुड़-तुड़ कर लत्ता जैसा हो जायेगा. लिहाजा हमने तय किया कि कॉफी हाउस ही जायेंगे; शनिवार को – जिस दिन दफ्तर में रहना वैकल्पिक होता है.

हम दोनो वहां पंहुचे. मैं पहली बार गया था. पर श्री सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रॉडक्ट हैं अत: यह उनका जाना पहचाना स्थान था. आप जरा कॉफी हाउस की इमारत का बाहरी व्यू देखें. वही स्पष्ट कर देगा कि यहां समय जैसे ठहरा हुआ है. पुराना स्ट्रक्चर, पुराना फसाड (facade’). अन्दर का वातावरण भी पुराना था. पुराना पर मजबूत फर्नीचर. दीवारें बदरंग. फाल्स सीलिंग वाली छत. महात्मा गांधी की दीवार पर टंगी एक फोटो. एक लकड़ी का काउण्टर. सफेद यूनिफार्म पहने बेयरे. आराम से बैठे लोग. नौजवानों की बिल्कुल अनुपस्थिति. सभी अधेड़ या वृद्ध.

पूरा वातावरण निहार कर श्री उपेन्द्र कुमार सिंह बड़े टेनटेटिव अन्दाज में बोले – “शायद उस कोने में बैठे वृद्ध फलाने जी हैं – इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रिटायर्ड गणित के प्रोफेसर. उनका बैठने का स्थान ही यही है. कई लोग यहां दिख जाते हैं. कभी कभी किसी के बारे में तहकीकात करो तो पता चलता है कि वे चले गये. चले गये का मतलब कभी यह भी होता है कि ऊपर चले गये”. मुझे लगा कि यह स्थान पुरानी प्रतिभाओं को सम्मान के साथ फेड-आउट होने की सुविधा मुहैया कराता है. पता नहीं जब हमें फेड-आउट होना होगा तब यह रहेगा या नहीं. 

मैं जरा उपेन्द्र कुमार सिंह जी का परिचय दे दूं. बगल में उनके दफ्तर में ली गयी उनकी फोटो है. वे उत्तर मध्य रेलवे का माल यातायात परिचालन का काम संभालते हैं – और काम की आवश्यकताओं के अनुसार पर्याप्त व्यस्त रहते हैं. इस चित्र में भी दो फोन लटकाये दिख रहे हैं! उनके पिताजी प्रोफेसर रहे हैं – गोरखपुर विश्वविद्यालय में. आजकल लखनऊ में फेड-आउट पीरियड का अवसाद झेल रहे हैं. हम दोनों मे बहुत वैचारिक साम्य है. सरकारी ताम-झाम से परे हम लगभग रोज लाई-चना-मूंगफली एक साथ बैठ कर सेवन करते हैं!
खैर कॉफी हाउस पर लौटा जाये. हम लोगों ने दोसा लिया. आशानुकूल ठीक था. उसके बाद कॉफी – एक सही ढंग से बनी कॉफी. परिवेश, भोज्य पदार्थ की गुणवत्ता, अपनी रुचि आदि का जोड़-बाकी करने पर हम लोगों को लगा कि इस स्थान को पेट्रोनाइज किया जा सकता है. आगामी सर्दियों में शनिवार को यहां आने की पूरी सम्भावना है हम दोनो की. आखिर हम दोनो बीते हुये वर्तमान को जी रहे हैं! 

मैं यह पोस्ट परिचयात्मक पोस्ट के तौर पर लिख रहा हूं. मुझे लग रहा है कि श्री उपेन्द्र कुमार सिंह और इण्डियन कॉफी हाउस (इलाहाबाद शाखा) के साथ भविष्य की कुछ पोस्टों के जुड़ा रहने की सम्भावना है. आखिर बिना आप अपना और अपने परिवेश का परिचय दिये कैसे जोड़ सकते हैं पाठक को? या शायद जोड़ सकते हों – मैं निश्चयात्मक रूप से नहीं कह सकता.      


 इण्डियन कॉफी हाउस “The Indian Coffee Workers Co-Operative Society” द्वारा संचालित है. यह को-ऑपरेटिव साम्यवादी नेता श्री ए.के. गोपालन ने १९५८ में केरल में बनाई थी. इसके अन्तर्गत देश में लगभग १६० कॉफी हाउस आते हैं. इनका अपना एक अलग अन्दाज और चरित्र है. वर्तमान समय में ये ऐसे लगते हैं कि जैसे समय यहां ठहर गया हो. आप अगर कॉफी के जबरदस्त फेनाटिक नहीं हैं और मात्र अच्छी कॉफी चाहते हैं – केपेचिनो या एस्प्रेसो के झंझट में पड़े बिना, तो कॉफी हाउस आपको जमेगा.

क्या आपके अपने अनुभव हैं कॉफी हाउस के?

यह किया जा सकता है – विभिन्न शहरों के इण्डियन कॉफी हाउस के फोटो आप सब के सौजन्य से एक जगह जुट जायें तो ब्लॉगजीन पर पर पब्लिश किये जायें!


हिन्दी की वर्जनायें और भरतलाल छाप हिन्दी!



उत्तर-मध्य रेलवे के हिन्दी पखवाड़ा समारोह से आ रहा हूं. पखवाड़ा समारोह माने एक राजभाषा प्रदर्शनी, गायन का कार्यक्रम, भाषण, एक प्लेट (पर्याप्त) अल्पाहार, पनीली कॉफी और पुरस्कार वितरण का समग्र रूप. हर साल की तरह इस साल का कार्यक्रम. Gyan(007)

मुख्य अतिथि के लिये अशोक वाजपेयी जी को बुलाया गया था. वे लपेट-लपेट कर हिन्दी प्रयोग/हिन्दी विभाग की दिशा, दशा, महादशा और दुर्दशा पर ४० मिनट बोल गये. जब कर्ता धर्ता थे तब तो हिन्दी विभाग चलाते रहे. अब कहते हैं (और माकूल कहते हैं) कि हिन्दी प्रपंच का यह विभाग बंद कर देना चाहिये जो शब्दकोष देख कर हिन्दी अनुवाद करता हो.

Gyan(008) मस्त भाषण झाड़ा वाजपेयी जी ने. हमें भी लग रहा है कि हिन्दी की सरकारी राशन की दूकान बन्द हो; असहज लेखन की बाध्यता समाप्त हो. हिन्दी राजभाषा रहने और बनने के टेन्शन से मुक्त हो. वैसे भी आजादी से पहले कौन सा सरकारी संरक्षण से हिन्दी फली फूली और आजादी के बाद भी सरकारी पत्र-पत्रिकाओं या फ़ाइलों से हिन्दी का कितना विकास हुआ? विकास में योगदान में तो शायद हिन्दी फिल्में और हिन्दी टेलीवीजन ज्यादा प्रभावी रहे हैं.

हिन्दी के मन माफिक प्रयोग पर आज भी कोई बैन नहीं है! पर हिन्दी की प्यूरिटी वाले टांय-टांय जरूर करते हैं. जैसा वाजपेयी जी ने कहा कई-कई ईंग्लिशेज (Englishes) हैं; उसी तरह कई-कई हिन्दियां बनें! 


हमारी घरेलू हिन्दी का पुरोहित तो भरत लाल (हमारा बंगला चपरासी) है. जो आज कल परेशान है कि "एक रिंगटोनवा के लिये मोबैलिया पर टीप दिहा त भक्क से १५ रुपिया निकरि गवा"! (एक रिंग टोन के लिये मोबाइल पर बटन दबा दिया तो भक्क से १५ रुपया निकल गया प्री-पेड खाते से!) अब इससे मस्त हिन्दी भला क्या बतायेंगे आप.

देखिये, अब भरतलाल के आने पर हम विषयान्तर कर रहे हैं; जो ब्लॉग पर जायज है.

भरतलाल खिड़की के सामने खड़ा हो कर बहती हवा और फुहार का मजा ले रहा था. कन्धे पर डस्टिंग का कपड़ा. काफी देर आनन्द लेने पर उसे लगा कि आनन्द शेयर किया जाये. तो वहीं खड़े खड़े बोला – "हवा बहुत मस्त चलतबा. झिंचक! कि नहीं बेबी दीदी!"

"कि नहीं बेबी दीदी" उसका तकिया कलाम है. बेबी दीदी यानी मेरे पत्नी. जब भी उसे किसी बात पर हुंकारी भरानी होती है तो बात बता कर जोड़ता है – "कि नहीं बेबी दीदी"!

और बेबी दीदी अगर प्रसन्न हुईं तो कहती हैं – "हां, किनहे!" और अगर मूड नहीं जम रहा तो कहती हैं – "ढ़ेर मठ्ठरबाजी मत कर. काम जल्दी कर. नहीं तो तेरा सिर तोड़ दूंगी." दोनो ही एक तरंगित हिन्दी का पाल लगाते हैं दैनिक चर्या के जहाज पर! जहाज मस्त डोलता लहराता चलता है. न जाने दिन में कितनी बार टूटता है भरतलाल का सिर. सिर तोड़ने को भरतलाल ऐसे प्रसन्न मन से लेता है जैसे राजभाषा शील्ड प्राप्त कर रहा हो.

खैर, मित्रों, अगर राजभाषा विभाग बंद कर दिया गया तो हम भरतलाल छाप हिन्दी की वकालत और प्रयोग करेंगे. एक आध पीएचडी-एलएसडी भी ठोक देंगे भरतलाल ब्राण्ड हिन्दी पर!

(यह पोस्ट शुक्रवार शाम को लिखी गयी. पाइपलाइन में थी. छपने का नम्बर आज लगा.)   


भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये समृद्धि के प्रति सोच बदले



अनिल रघुराज जी का कथन है कि गरीबी खतम होने से ही भ्रष्टाचार खतम होगा. अमीर देशों में भ्रष्टाचार कम है. पर गरीबी खतम करने के मिशन से अमीर देश अमीर बने हैं क्या? मुझे नहीं लगता कि गरीबी कम करना किसी राष्ट्र का सार्थक मिशन हो सकता है. वह तो श्रीमती गांधी का देश को दिया गया नारा मात्र हो सकता है – जो कोई प्रभाव न डाल पाया. जैसा कि बड़े व्यंग से कहा जाता है – नारे से गरीबी तो खतम नहीं हुई, गरीब जरूर खतम हो गया.

Rich poor

गरीबी खतम करने के मिशन में एक नेगेटिविज्म है. उसके उपाय में सरकारी योजनाओं छाप काम होते हैं. पर यदि आपका मिशन समृद्धि और विकास हो – त्वरित आर्थिक विकास तो आप फास्ट ट्रैक पर चलते हैं. देश की गरीबी पर रुदन करने में समय नहीं जाया करते. उन सभी उद्यमों और उपक्रमों को इज्जत बख्शते हैं जिनसे विकास दर बढ़ती है. फिर कुर्सी पर बैठे बुद्धिजीवी की तरह आप रिलायन्स वाले को सतत गली नहीं देते. फिर नक्सलवाद को आदर्श बता कर आप अपने ब्लॉग पर हिट काउण्ट नहीं गिनते. आप उन सभी प्रयत्नों को सार्थक मानने लगते हैं जिससे उत्पादन और आर्थिक विकास होता हो. तब आप अपने आप को “कलम की मजदूरी कर रहा हू” छाप आदर्श वाक्यों से गौरवान्वित नहीं करते. आप पूरी जागृत उद्यमशीलता से अपनी आर्थिक समृद्धि के स्वप्न देखते और साकार करते हैं. उसमें वृद्धि आपको भौतिक और बौद्धिक खुराक देती है. और यह कोई मध्यवर्ग – उच्च वर्ग की बपौती नहीं है. मैने गरीब व्यक्ति को भी जायज तरीके से समृद्धि पाते देखा है. और उत्तरोत्तर ये उदाहरण और दिखने को मिलेंगे.

मैं आपसे गरीबी और गरीब को हेय दृष्टि से देखने को कदापि नहीं कह रहा. मैं केवल उसके महिममण्डन से बचने को कह रहा हूं. गरीबी में वर्च्यू है और समृद्धि काइयां है – यह सोच उतनी ही विकृत है जितनी यह कि गरीब गन्दे, बेइमान और बददिमाग होते हैं. कई अमीरों में जब पैसा सिर चढ़ जाता है तब वे गरीब को पददलित करने और हेय मानने के घोर कर्म को सामान्य मानने लगते हैं. मैं उस निकृष्ट सोच की वकालत नहीं कर रहा. पर यह कहना चाहता हूं कि जब तक हमारी सोच गरीबी सेंट्रिक रहेगी तब तक उसका उन्मूलन नहीं हो सकता. जब यह सोच गरीबी हटाने से समृद्धि लाने में परिवर्तित होगी तब सबसिडी की बजाय माइक्रोफिनांस पर ध्यान जायेगा. हर व्यक्ति उत्पादन प्रक्रिया से सार्थकता के साथ जुड़ेगा. ऑंत्रेपिन्योर बनेगा. ….. जो कुछ होगा उसपर अलग से लेख/लेखमाला बन सकती है.

अत: गरीबी खतम होनी चाहिये – जरूर. उसके खतम होने में भ्रष्टाचार उन्मूलन भी निहित है. पर वह गरीबी खतम करने को मिशन बनाने से नहीं होगी. वह पैसे और समृद्धि के प्रति सोच बदलने से होगी.


मेरी सम्बन्धित विषय पर पहले के कुछ अन्य ब्लॉग-पोस्ट:
कर्ज लेते हैं पर लौटाते समय कोसते हैं बाजारवाद को!
सिंगूर जैसी कशमकश और बढ़ेगी भविष्य में
निजी सम्पत्ति – नन्दीग्राम – साम्यवाद – कॉर्पोरेट कल्चर
धन पर श्री अरविन्द
टाटा डकैत तो नहीं है


सड़क के डिवाइडर पर नींद कैसे आ जाती है



मेरा दुनियां का अनुभव सीमित है. मैं केवल घर से दफ्तर, दफ्तर से घर का अनुभव रखता हूं. घर और दफ़्तर के अनुभव बार-बार एकसार से और नीरस होते हैं.

दोनो के बीच केवल एक घण्टे की यात्रा जो रोज होती है; उसमें वाहन से बाहर झांकते हुये दुनियां दीखती है. जीवन में कुछ ही वाहन ड्राइवर सही मायने में सारथी मिले – गौतम के या अर्जुन के सारथी की तरह अनुभव और नसीहत देने वाले. पर सामान्यत: वे सामान्य जीव ही थे. आज कल जो ड्राइवर है; वह अपने जीवन से मेरी तरह परेशान है. सो वह कोई ज्ञान देने से रहा.

पर वाहन से बाहर झांकना मन को गुदगुदाता है. परसों रात में देर से लौट रहा था. रात में ट्रकों को शहर में आने दिया जाता है. उससे उनका डयवर्शन बचता होगा और कुछ पुलीस वालों की दैनिक आय का जरीया बनता होगा. पर उन ट्रकों के बीच – जिनके कारवां को ट्रैफिक जाम के नाम से जाना जाता है – आपको उस अजगर की याद हो आती है जो नौ दिन में अंगुल भर चलता था.

राणाप्रताप की प्रतिमा के चौराहे के पास एक रोड के बीचोंबीच पतली पट्टी की आकार के चबूतरेनुमा डिवाइडर पर एक व्यक्ति सो रहा था. बिल्कुल राणाप्रताप के भाले की दिशा में. राणा अगर भाला चला दें तो प्रोजेक्टाइल मोशन (projectile motion) के साथ उसी पर जा कर गिरता. रात के ११ बजे थे. ट्रकों का शोर उसपर असर नहीं कर रहा था.

मुझे लगा कि कहीं नशे में धुत व्यक्ति न हो. पर अचानक उसने सधी हुई करवट बदली. अगर धुत होता तो बद्द से डिवाइडर के नीचे गिर जाता. पर वह संकरे  डिवाइडर पर ही सधा रहा – इसका मतलब सो रहा था. उसके सोने में इतनी सुप्त-प्रज्ञा थी कि वह जानता था उसके बिस्तर का आयाम कितना है. करवट बदलने पर उसका बांया हाथ जो पहले शरीर से दबा था, मुक्त हो कर डिवाइडर से नीचे झूलने लगा. ट्रैफिक जाम के चलते बहुत समय तक मैं उसके पास रहा और उसे देखता रहा. 

मुझे यह विचित्र लगा. मैने सोचा – घर पंहुच कर मैं सोने के पहले मच्छरों से बचने के लिये मॉस्कीटो रिपेलर का इन्तजाम चेक करूंगा. The bedबिस्तर की दशा पैनी नजर से देखूंगा. नींद आने के लिये गोली भी लूंगा. यह सब करने पर भी ३०-३५ प्रतिशत सम्भावना है कि २-३ घण्टे नींद न आये. और यह आदमी है जो व्यस्त सड़कों के चौराहे वाली रोड के डिवाइडर पर सो रहा है!

depressed_manमुझे उस आदमी से ईर्ष्या हुई. 

कभी-कभी लगता है कि मैं राहुल सांकृत्यायन अथवा अमृतलाल वेगड़ की तरह निकल जाऊं. यायावर जिन्दगी जीने को. पर जैसे ही यह सद्विचार अपनी पत्नी को सुनाता हूं; वे तुरत व्यंग करती हैं – बनाये जाओ ख्याली पुलाव! नर्मदा के तट पर तुम्हें कहां मिलेंगे रेस्ट हाउस या मोटल. बिना रिटर्न जर्नी रिजर्वेशन कन्फर्म हुये घर से एक कदम बाहर नहीं करते और जाओगे यायावरी करने? मुंह और मसूर की दाल.

पत्नी को पूरा यकीन है न मैं घुमन्तू बन सकता हूं और न साधू-सन्यासी. सवेरे नहाने के पहले अधोवस्त्र और फिर दफ्तर जाने के कपड़ों तक के लिये पत्नी पर निर्भर व्यक्ति आत्म निर्भर कैसे बन सकता है! पत्नीजी ने यह छोटी-छोटी सहूलियतों का दास बना कर हमारी सारी स्वतन्त्रता मार दी है.

खैर मैं न पत्नी जी को कोसूंगा और न प्रारब्ध को. भगवान ने जो दिया है; बहुत कृपा है. पर नींद और निश्चिन्तता नहीं दी. उसका जुगाड़ करना है. उस आदमी को सड़क के डिवाइडर पर गहरी नींद आ जाती है. मुझे घर में; पन्खे के नीचे आरामदेह बिस्तर पर भी नहीं आती. मुझे नींद न आने की आशंका और लोक – परलोक की चिन्तायें न सतायें – इसका हल खोजना है.

इतनी जिन्दगी में इतना तो स्पष्ट हो गया है कि समाधान खुद ही खोजने होते हैं. आर्ट आफ लिविंग और बाबा रामदेव के प्रवचनों इत्यदि के इतर और मात्र अपने समाधान!

आपके पास टिप्स हैं क्या?  


%d bloggers like this: