एक मार्च को लखनऊ में बहन मायावती की रैली थी. पहले वे सवर्णो को मनुवादी कहती थीं. उनके खिलाफ बोलती थीं. सामान्य लगती थीं. पर जब से उनकी पार्टी ने ब्राह्मणों को टैग किया है, तब से मामला क्यूरियस हो गया है. यूपोरियन राजनीति में क्या गुल खिलेगा; उसका कयास लगाना मजेदार हो गया है.
सो, उनकी रैली कितनी धमाकेदार रहती है – यह जानने की उत्कंठा मन में थी. मायूसी तब हुई जब उस दिन अखबारों के नेट संस्करण ने रैली को खास भाव नही दिया. अगले दिन अमर उजाला (जो मेरे घर आता है) ने रैली को पेज तीन पर कवर किया. वह भी ब्लैक-ह्वाइट चित्र के साथ.
इस रैली के लिये रेल से भी लोग ले जाये गये थे. दर्जन से भी ज्यादा स्पेशल रेलगाडियां (पूरा किराया देकर) लखनऊ गई थीं. बसों का इन्तजाम तो बेतहाशा था. यह सब पेज तीन पर कवरेज के लिये? इतना कवरेज तो बेमौसम सूखी प्रेस-रिलीज पर भी मिल जाता है. शहर के किसी कोने में तथाकथित एनकाउन्टर को भी पेज तीन पर कलर फोटो के साथ जगह मिलती है.
सब कुछ गड़बड़ सा हो रहा है. इन्फ्लेशन बढ़ रहा है. सीमेण्ट वाले दाम कम करने की हिदायत के बावजूद दाम बढ़ा देते हैं. पंजाब व उत्तराखण्ड में बिना जोर लगाये विपक्ष जीत जाता है. बिहार के कार्यकाल के बिल्कुल उलट, लालू जी रेल में २०,००० करोड़ रुपये का मुनाफा दिखाते हैं. सेन्सेक्स गिरे जा रहा है…
लोग कयास लगा रहे हैं कि मुलायम गये और मायावती आईं. लोगों का कयास रैली के ल्यूकवार्म कवरेज से गड़बड़ाता नजर आता है.
यूपोरियन इलेक्शन को लेकर कई सवाल हैं. क्या मायावती “क्रिटिकल मास” जुटा पायेंगी? क्या उनके बन्दे – विशेषकर सवर्ण – चुनाव बाद जीतकर भी साथ रहेंगे? क्या भाजपा या कॉग्रेस डार्क हॉर्स साबित होंगे? गेंगेस्टर-ब्रिगेड चुनाव आयोग को ठेंगे पर रख सकेगी? क्या बाजार का चमत्कार/बेरोजगारी/”बाबालोगों” की चमकती इमेज फर्क डाल सकेंगे? और कितना?
मुझे लगता है कि चिठेरा समुदाय इन मसलों पर अपनी व्यक्तिगत/सामुहिक राय जरूर रखता होगा. एक बहस बहन मायावती पर चलेगी जरूर! बहनजी (व लालूजी) ऐसे लीडर हैं, जिनके प्रति आप उदासीन भाव तो रख ही नहीं सकते.
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