“कोरोना कहां है साहेब?! मुझे तो कहीं नहीं दिखा। कोई कोरोना से बीमार नजर नहीं आया। वह तो पहले था। छ महीना पहले। अब कहीं नहीं है।” – कड़े प्रसाद ने उत्तर दिया।
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“यह टीका वीका सब ढकोसला है”
“लोग टीका लगवा कर सोच रहे हैं कि अमृतपान कर लिया। अब कुछ हो नहीं सकता उनको। पर किसी को नहीं मालुम कि टीका कितना प्रभावी है। कितनी एफीकेसी है। कितने समय तक उसका फायदा होगा।”
स्कूल बंद हैं तो घर में ही खोला एक बच्चे के लिये स्कूल
सात साल की पद्मजा का अध्यापक बनना मुझे कठिन काम लगा। बहुत ही कठिन। एक बच्चे की मेधा और उसकी सीखने के स्तर पर उतर कर सोचना आसान काम नहीं है। केल्कुलस पढ़ाना साधारण जोड़, घटाना पढ़ाने की अपेक्षा आसान है।
मेरे समधी, रवींद्र कुमार पाण्डेय का कोरोना संक्रमण और उबरना
“यह तो कोरोना है, जिसकी न कोई दवा है न कोई पुख्ता इलाज। बस देख सँभल कर चलना रहना ही हो सकता है। जिस तरह के कामधाम मैं हम हैं वहां अकेले एकांत में तो रहा नहीं जा सकता। लोगों से सम्पर्क तो होगा ही। गतिविधि तो रहेगी ही। बस, बच बचा कर वह कर रहे हैं।”
स्वामी अड़गड़ानंद जी के आश्रम में
धीरे धीरे चल रही थी उनकी कार। रास्ते में आश्रम वासी हाथ जोड़ खड़े हो जाते थे और वाहन सामने से गुजरते समय दण्डवत प्रणाम करते थे।
पांच दिन का कोरोना संक्रमण का मेरा उहापोह
फिलहाल मैं प्रसन्न हूं कि कोरोना संक्रमण में जाते जाते बच गया हूं। जी हाँ, बच ही गया हूं! यह एहसास मरीज के अस्पताल से ठीक हो कर घर लौटने जैसा ही है!